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यो चिन्त्यौ हिरवं परवीन, कोनी दुविध परिग्रह हीन यथा विद्याची तन ले जाव आराधना मन्त्र परभाव || मन वच काया दीक्षा घरी तास चहन जय इच्छा करी सकल असार वस्तुकी त्याग स्वयं भक्तिदायक वैराग ॥ २॥ ग्रातरौद्र दुरलेश्या जान ताते सब ग्रथ करता मान। धर्म शुकल शुभ लेश्या तीन, भजे सदा मुनिवर परवान ॥८६॥ विकया आदि वचन नहि है धर्मकथा निश दिन हि श्रुत सिद्धांत पदं यचरं गर्मवनों उपदेश जु करें ॥०॥ गुफा मग़ान मंत्र उद्यान निर्जन भवन व गुण खान ध्यान सिद्धि उपसर्ग प्रवीन, रहें विरान थान चित लीन ॥१॥ अटवी आदि ग्राम बहु देश, बिहारं सदा लोभ नहि वेश द्वादशविध तप को महान कर्म युष्ट परितन पान ||१२|| सर्व मूल उत्तर गुण लीन, चित पडोल मुनि जगत प्रवीन जिनवर कथित जती आधार पर निस दिन बहुत प्रकार ॥६३॥ मरत प्रजंत घनच तप करो, अरु सन्यास हिये मादरी विकया चार प्रकार निवार, देह आदि ममता सत्र दार ||६४।। क्षुधा तृपादि परिषद् सबै जीती धीरज धर मुनि तवें आप वोर्यको परगद कीन, मुक्ति रमा साधक परवीन ॥६५॥ चार प्रकार आराधन घार, जतन पूर्व सार्धं मन धार धर्मध्यान सौ छोड़ प्रान, मन त्रिकल्प वर्जित गुणधान ||१६|| तप व्रत फलसुरान् मान भी महादिक देव महान अन्तमुहूरत अवधि प्रकाश जान्यो पूर्व भव सुख वास ॥१७॥ । मन सम्या बाई, धर्मसद्धि के कारण सबै तीन लोक जिन धानक जहाँ पूजन हेत जाइ सुर तहां ॥१८॥ तीर्थकर मुनि केवल सबै जाइ तहां अर्चा कर नवे इहि प्रकार बहु पुण्य उपाय, प्रति विभूति भुगते गृह जाय ॥६९॥ तेरह समुद्र बावु परमान, पंच हस्त उन्नत वपु जान वर्ष योदेश सहस मकार ने सुधा निर्माण प्रहार ॥१००॥ ।
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दृढ़
मूर्ख धर्म धारण नहीं करते, वे पाप का बोझ लेकर यमराज का ग्रास हो नरकादि योनियों में परिभ्रमण किया करते हैं अतएव भव्य जीवों को सर्वदा धर्म का श्राश्रय ग्रहण करना चाहिये । श्रपनी मृत्यु को शंका कर किसी भी समय को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिये ।
ऐसा विचार कर उस बुद्धिमान ने वाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहों का परित्याग कर एवं अपनी पत्नी को पिशाचिनी समझ कर मन वचन कर्म तीनों से नमस्कृत ऐसी जिन दीक्षा ग्रहण कर लो, जिससे स्वर्ग और मोक्ष के मार्ग सरल हो जाते हैं। उन कनकोश्वर कुमार ने बातें रौद्ररूप खोट ध्यान तथा कृष्णादि छोटी लेश्याओं को छोड़कर धर्म ध्यान चोर शुद्ध सेवा धारण की। वह चारों विरुया कप वचनों को त्याग कर धर्म कथा में लोन हुआ। उसने ध्यान को सिद्धि के लिये रोग उत्पन्न करने वाले स्थानों तथा गुफा, वन, पर्वत और निर्जन स्थानों की धरण ही वह धर्मोपदेश और शास्त्रोंका बहुत बड़ा ज्ञाता हुआ ।
मुनि कुमार ने वन ग्राम देश यादि स्थानों में बिहार कर कर्मों को दिष्टि करने वाला बारह प्रकार के तपों का आनरण किया। इस प्रकार उन मुनि ने मूल गुणों का तथा शास्त्र में वर्णित संयम का मृत्यु काल पर्यन्त पालन कर अन्त समय चारों प्रकार के ग्राहारों का त्याग तथा शरीर का ममत्व छोड़कर सन्यास धारण कर लिया। अन्त में उन्होंने वै पूर्वक भूख पास माथि परिषहों को जोत कर समाधि के समय धर्म ध्यान से प्राणों का परित्याग किया। उचत उपके प्रभाव से इन्हें जांतव नाम के सातवें स्वर्ग में महान ऋद्धि धारी देव पद प्राप्त हुआ और सुख प्रदान करने वाली सारो सम्पदार्थ उपलब्ध हुई।
इन्होंने स्वर्ग में भी अवधिज्ञान द्वारा पूर्वकृत तपों के प्रभाव और उनके फलों को जान कर दृढ़चित्त हो धर्म की सिद्धि के लिये लोस्थित जिनालयों एवं मुनिगण आदि की पूजा करते हुए महान पुष्यका उपार्जन किया। इस पुण्य फल से उन्हें तेरह सा
१. करके नाम के सातवें स्वर्ग में महामारी देव हुआ, वहाँ भी यह सम्बनि ध्यान तथा जिन पूजा में लीन
रहता था।
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