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इस विषय में यदि काननी नजीरों पर विचार किया जाय तो प्रगट होता है कि प्रिवी-कौंसिल (Privy Council) ने सब-ही सम्प्रदायों के मनुष्यों के लिए अपने धर्म-सम्बन्धी जलसों को आम सड़कों पर निकालना जायफ करार दिया है। निम्न उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं। प्रिवो कौंसिल ने मजूर हसन बनाम मुहम्मद जमन के मुकदमे में तय किया है कि :
"Persons of all sects arc entitled to conduct religious processions through public streets, so that they do not interfere with the ordinary use of such streets by the public and subject to such directions the Magistrate may lawfully give to prevent obstructions of the throngh fare or brcaches of the public peace, and the worshippers in a mosque or temple, which abutted on a highroad could not complc processionists to intermit their worship while passing the mosque or temple on the grond that there was a continuous worship there." (Manzur Hasan Vs. Mohammad Zaman, 23 All, Law Journal. 179).
भावार्थ-'प्रत्येक सम्प्रदाय के मनुष्य अपने धार्मिक जलू सों को ग्राम रास्ते से ले जाने के मधिकारी हैं, बशर्ते कि उससे साधारण जनता को रास्ते के व्यवहार करने में दिक्कत न हो और मजिस्ट्रेट की उन सूचनाओं को पाबन्दी भी हो गई हो जो उसने रास्ते की रुकावट और अशान्ति न होने के लिये उपस्थित की हों । और किसी मस्जिद या मन्दिर में, जो रास्ते पर स्थित हो, पूजा करने वाले लोग जलूस निकालने वालों को जब कि वह मन्दिर या मस्जिद के पास से निकले, मात्र इस कारण कि उस समय वहां पूजा हो रही है उनकी जलूसी पूजा को बन्द करने पर मजबूर नहीं कर सकते।'
इस सम्बन्ध में "पारथसार्दी प्रार्यगर बनाम चिन्नकृष्ण प्रायंगार" की नजीर भी दृष्टव्य है ।(Indian Law Report, Madras. Vol, Vp. 309) शुद्रम् चेट्री बनाम महाराणी के मुकदमे में यही उसूल साफ शब्दों में इससे पहले भी स्वीकार किया जा चका है (ILR. VIp, 203) इस मकद्दमे के फैसले में पृष्ठ २०६ पर कहा गया है कि जलूसों के सम्बन्ध में यह देखना चाहिये कि अगर वह धामिक हैं और घामिक अंशों का ख्याल किया जाना जरूरी है. तो एक सम्प्रदाय के जलस को दूसरे सम्प्रदाय के पूज्य-स्थान के पास से न निकलने देन। उसी तरह की सख्ती है जैसे कि जलूस के निकलने के वक्त उपासना-मन्दिर में पूजा बन्द कर देना।
__ मुकद्दमा सदागोपाचार्य बनाम रामाराव (ILR. VI p. 376) में भी यही राय जाहिर की गई है। इलाहाबाद ला जर्नल (भा० २३ पृ० १८०) पर प्रिवी कौंसिल के जज महोदयों ने लिखा है कि 'भारतवर्ष में ऐसे जलूसों के जिनमें मजहबी मालदा की जाती है सरेराह निकालने के अधिकारों के सम्बन्ध में एक नजीर' कायम करने की जरूरत मालम होती है, क्योंकि भारतवर्ष में पाला-अदालतों के फैसले इस विषय में एक दूसरे के खिलाफ हैं। सवाल यह है कि किसी धार्मिक जलस को मनासिब व जरूरी विनय के साथ शाह-राह-माम से निकालने का अधिकार है ? मान्य जज महोदय इसका फैसला स्वीकृति में देते हैं अर्थात लोगों को धार्मिक जलूस प्राम-रास्तों से ले जाने का अधिकार है।
मकहमा शंकरसिंह बनाम सरकार कैसरे हिन्द (Al. Law Journal Report. 1929 pp. 180-182) जेर-दफा ३० पुलिस-ऐक्ट नं०५ सन् १८६१ में यह तजवीज़ हुआ कि 'तरतीब'-वयवस्था देने का मतलब 'मनाई' नहीं है। मजिस्ट्रेट जिला की राय थी कि गाने-बजाने की मनाई सुपरिन्टेन्डेन्ट पुलिस ने उस अधिकार से की थी जो उसे दफा ३० पुलिस-ऐक्ट की
से मिला था कि किसी त्यौहार या रस्म के मौके पर जो गाने-बजाने प्राम-रास्तों पर किये जावें उनको किसी हद तक सीमित कर दे । मैं (जज हाई कोर्ट) मजिस्ट्रेट-जिला की राय से सहमत नहीं हूं कि शब्द 'व्यवस्था' का भाव हर प्रकार के बाजे की मनाई है। व्यवस्था देने का अधिकार उसी मामले में दिया जाता है जिसका कोई अस्तित्व हो । किसी ऐसे कार्य के लिये जिसका अस्तित्व ही नहीं है, व्यवस्था देने की सूचना बिल्कुल व्यर्थ है। उदाहरणतः पाने-जाने की व्यवस्था के सम्बन्ध में सूचना से याने जाने के अधिकार का अस्तित्व स्वत: अनुमान किया जायगा। उसका अर्थ यह नहीं है कि पुलिस अफसरान किसी व्यक्ति को उसके घर में बन्द रखने या उसका आना-जाना रोक देने के अधिकारी हैं।
दफा ३१ पुलिस ऐक्ट की रू से पुलिस को आम रास्तों, सड़कों, गलियों, घाटों आदि पर आने-जाने के सब ही स्थानों में शान्ति स्थिर रखने का अधिकार है । बनारस में इस प्रधिकार के अनुसार एक हुक्म जारी किया गया था कि खास सम्प्रदाय के लोग यात्रावालों (पण्डों) को, जो इस पवित्र नगर की यात्रा के लिए लोगों का पथ प्रदर्शन करते हैं, रेलवे स्टेशन पर जाने की