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ए रस जो कोई कहइ भाष, तो द्वीप अढ़ाई स्वाद चाख । सो स्वाद बखान सुनि गहोर, यह ऋद्धि लही कर तप शरीर ॥२११।। अव दशमी दूरी घ्राण जास, दुरगंध और सुरगंध वास । सो पूर्व रीति मुनि जानि लेह, यह नासा विषय विलास जेह ।।२१।। पुन दूरी-श्रवण जु इक दोव, हैं सात विषय ताके सुनेव । सो ऋषभ निषाद गांधार तीन, चौथे को षडज जु नामलीन ।।२१३॥ पंचम मध्यम धैवत छटेव, पंचम मिलि स्वर सातौ गनेव । जो पुरुष शवद है ऋषभ नाम, नभगरज निषाद द्वितीय ठाम ||२१४।। पन प्रजा शबद गांधार होय, मजार शबद जह पहज जोय । पन्चम मध्यम यह शबद रूप, छठमौं धंवत गजवर अनूप ।।२१५।। कोकिल वर पंचम स्वर ही सात सब पंच शब्द कहिये विख्यात । है प्रथम शब्द जहं मर्मवाज, फुकार दुतिय तहं तंत साज ।।२१६।। चौथो मजीरादिक बखान, जल लहर शब्द पंचम प्रमान । सो पूर्व रीति जाने लखाव, सब द्वीप अढ़ाई के प्रभाव ॥२१॥ दूरी अवलोकन द्वादशेत्र, रंग श्वेत पीत अनुरक्त भेव । तहं कृष्ण नील सब पंच वर्ण, पूर्वोक्त दूर ते ज्ञान घर्ण ॥२१८॥ दश पूर्वबुद्धि तेरम वस्त्रान, दर्श पूर्व अंग एकादशान । विन पहुँ सकल विद्या लहेय, रांपूरण अर्थ हि सुख कहेव ।।२१६॥ अरु रोहिणी देवी क्षुल्लिकादि, सबपंच सप्त तं धर विषाद । मिल कर कटाक्षो हाब भाव, थिर रहै तहाँ मन ध्यानचाव ।।२२०।। चौदह पूर्वा बुधि चौदशेव, नहं चौदह पूर्व जु अंग तेव । बिन हो श्रम सब ही पढ़ कहाय, सो द्वादशांग श्रुत ज्ञान राय ॥२२१॥ सत संयम अझ चारित विधान, ते विन उपदेश ही लहइ ज्ञान। इन्द्रिय दम तप घोरानुघोर, वह बुधि प्रतेक पन्द्रमहि जोर ।।२२२॥ अब षोडशमी है बाद बुद्धि, बहु वाद करन पावै त्रिशुद्धि । ते इन्द्र आदि विद्या प्रमान, इक उत्तर सबको मद गलान ।।२२३॥ बुध प्रज्ञा सत्रमि सुनहु तग्य, सब तत्व अरथ संजम मुतग्य । तिनि भेद थूल मूक्षम अनंत, विन द्वादशांग वाणी कहूंत १।२२४॥ अट्ठारम बुधि नैमित्त अन्न, तिनके गुण आठ प्रकार भन्न । स्वर अन्तरीक्ष भूमंड छिन्न, व्यंजन लक्षण अरु सूपन भिन्न ॥२२॥ खग चौपद की भापा प्रजोत,प्रगट मुनि हिय पर सहज प्रीत। तिनको जो कछु भावीय काल, दुख सुख बरनं स्वर अंगभाल ||२२६॥ ग्रह भान सोम प्रादिक प्रशस्त, शुभ अशुभ आदि फल उदय प्रस्त। तहं तीता नागत वर्तमान, वरनै तु अंतरिछ भगवान ॥२२७|| पिछली सुवस्त कछु भू मंझार, द्रव्यादिक सब नाना प्रकार । अरु भूप कप बरत जु सोइ, वरने भू अंगहि तृतिय जोइ ।।२२८।। नर पशु दुख-सुख सबकी जनाय, वैद्यक सामुद्रिक सब सुभाय । करुणा जुत प्राः मुनि प्रसंग, प्रगट उपकार जु मंड अंग ॥२२६॥ तह वस्त्र शस्त्र सेनादि छत्र, प्रासन अवस्त्र कंटक अशस्त्र । एकस सुरनर मुख अंसझार, गोमय अरु अगनि बिनाशहार ॥२३०।। शुभ अशुभ उपाबत फलजु सोय, प्रगटै बखान संशय न कोय । यह छिन्न अंग पंचम गनंत, बुद्धि नैमित्तिक मुनिवर भनत ॥२३॥ तिल मसे जु लहसन इनहि आदि, हैं सामुद्रिक ते जूद अनादि । तिनके फल दरने पूर्व ज्ञान, यह व्यंजन अंगहि गुणनिधान ।।२३२।। लक्षण श्री वृक्षादिक भनीक, अष्टोत्तर शत तिनको जु ठीक । कर पगत र शुभ ग्रह अगभ जेम, वरनं सो लक्षण अंग तेम ।।२३३।। जगमांहि पदारथ सकल होय, ते सुपन विष जो लखहि कोय। तिनको फल कहि संशय मिटाय, यह सुपनअंग पाठम सुभाय ।।२३४।।
दोहा
यह अष्टादश भेद युत, बुद्धि ऋद्धि गुण गेह । बिमल रूप प्रगटै सदा, पाय तपोधन देह ।।२३५||
वह विशुद्ध आहार प्रासुक स्वादिष्ट था, निर्मल तपको बढ़ानेवाला था, और क्षधा पिपासाको शान्त करने वाला था। उस राजा के दान से देवता लोग बहुत प्रसन्न हुए और पूण्योदयके कारण राजप्रासाद के प्रांगन में रत्नोंकी मूसलाधार वर्षा हुई । उस रत्न वर्षाके साथ ही साथ पुष्प वृष्टि एवं जल वष्टि भी हई। उसी समय प्रकाश मण्डल में दुन्दुभि इत्यादि बाजो की गम्भार तुमुलध्वनि हई। उन वाद्योंके महान रागोंको सूनने से ऐसा जान पडता था मानो वे राजाके पूण्य एवं उत्तम यशका गम्भीर स्वरमें गान कर रहे हों ! उसी समय देव भी 'जय जय' इत्यादि शभ शब्दों का उच्चारण करते हुए कहने लगे कि हे प्राणिया, यह परमोत्तम पात्र श्रीमहावीर प्रभ दाता को इस संसार रूपी महा समद्र से अनायास ही पार उतार देनवाले है। यह दाता अत्यन्त भाग्यशाली एवं धन्य है जिसके यहाँ कि अपने पाप स्वयं जिनराज पहंच जाय। ऐसे उतम दान के प्रभाव से दाता को स्वर्ग एवं
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