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चौपाई
क्षमा भाव सब हो सो माने, कांचन कांच बरावर जाने धन कन जिनके एक समान महल मसान भेद नहि यान || १९३ ।। दुस मुख जानहि एक हि भाव जीवन मरण बरावर चाव मित्र दोनों सम एक पनी निरधनी एक ही टेक ॥। १९४॥
व
उपजी प्रभु को ऋद्धि बुद्धि] सौषधि क्षेत्र वच
दोहा
सिद्धि अनेक प्रकार तप रस विक्रय धरस
तिन गुण क्रिया सहित
सवैया इकतीसा
वर्णन करी, लहि आगम अनुसार ।। ११।। अष्टी कहो, तिन ऋद्धि तिस वस्स ।। १२६॥
प्रथम बुद्धि बिहार प्रभाव श्री पुनीश उर धानिये - केवल मन:पर्यय अवधि बीज कोष्ठ सं-भिन्न स्रोत तथा पादानुसार हां जानिये । दूरी पर्श दूरी रस घ्राण श्री श्रवण दूरी, दूरी बहू भांत अवलोकन बखानिये - देश पूर्वा चतुर्दश पूर्वी प्रत्येक वाद प्रज्ञा नैमित्तक भेद भ्रष्टादश प्रमानिये ।। ११७।।
पडि छन्द
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सहं तीन लोक भाजु एम. हि जलकी बूंद हस्त जेम यह केवल ऋतु प्रथम नाम, जहं जीव सर्व इष्टो विराम ॥ ११८ ॥ अब मन:पर्ययजीय बुद्धि, तजि मन विकार निर्मल हि शुद्धि | सबके मन की आने जु जीव, जैसो जाके हिरदे प्रतीव ।। १६६ ॥ ताही में है सुन भेद दोव, ऋजु विपुल कहे भगवान सोय सबके मनको है सरल भाव, सो ऋजुमति बारे को लखान ॥ २००॥ सूधी टेड़ी जो जान लेय, यह विपुल मती तासो कय । पुनि अवधि बुद्धि तीजी प्रमान, सो आगम शास्तर भवबखान ॥ २०१ ॥ बिन पूछे नहि पहिचान होय, जब पुच्छय उत्तर कहद सोय । है अवधि भेद तीनों प्रकार, देशावधि परमावधि जु सार ॥ २०२॥ जो एक देश की कह दक्ष सो देशावधि मुनिवर प्रतक्ष जहं द्वीप बढ़ाई वरन भेद, भूमि परमावधि भाषे निवेद ।। ५०३ ।। कहि तीन लोक संबन्ध जोय, सर्वावधि ऐसी गुण जु होय अब वीर्जबुद्धि चौधीय टेक, पद एक पढ़त प्रापति अनेक ॥। २०४॥ पुन कोष्ठ बुद्धिपंचम बखान, जहं सुनहि एक अस लोक ठान कहि प्रश्न अगि सोइ कछु भेद छिपी नहि रहइ कोइ ।। २०५ ।। भिन्नता बुद्धि पष्ठ, नव बारह जोजन ती वरिष्ठ दल चक्रवति ते तक प्रमान नर देश देश के ताहि यान || २०६ ॥ जो बोलहि एकहि बात सर्व पहिचानहि तिनके वचन पर्व पादानुसार उत्तमह बुद्धि, पद यादि पंत की करहिं बुद्धि ।।२०७३ सो सकल ग्रन्थ अर्थह समस्त, अरु कंठपाठ भज मुनि प्रशस्त दूरी सपरस भ्रष्टम गनेइ, गुरु लघु चीकन अरु रुख धरेइ ॥ २०८ ॥ कोमल कठोर ग्ररु उष्ण शीत, यह आठ प्रकार सपर्स रीत सो द्वीप ग्रढ़ाई ली उतिष्ठ इक जोजन तें जानें कनिष्ठ ॥ २०६॥ सबके गुणभाष जुद जुदेय, तप बल खाँ से सब जान लेव भय नवमी दूरी रखन पाप, मधु विक्त कटुक आमलकयाय ।। २१०॥
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यह परम दुर्लभ उत्तम पात्र ही मेरे भी भाग्यसे प्राप्त हुआ है इसलिये मेरा यह आहार दान सविधि पूर्ण रूपेण सम्पूर्ण है। ऐसा श्रेष्ठ विचार करके वह राजा अत्यन्त यद्धाशील बनकर अपनी शक्ति अनुसार पात्र दानके महान उद्योग में लग गया। किन्तु उस महादान के प्रभाव से उत्पन्न अजस रत्नवृष्टि एवं कोर्ति की अभिलाषा उस राजा ने नहीं की। वह सेवा पूजा इत्यादिके द्वारा प्रनकी भक्ति में लग गया, और धर्म सिद्धिके निमित्त अन्य कार्योंको जो वह किया करता था उन सबको तिलांजलि दे दी। उस राजाने सोचा कि यह प्रयुक बाहार है और दान देने का यही श्रेष्ठ समय है। यह शो पुरुष किस प्रकार उपवासों के उन मसा पेशों को धैर्य पूर्वक सह लेता होगा इन्हें उत्तम विधि से आहार देना चाहिये। उस राजाने ऐसा विचार किया। राजाने इस प्रकार महान फलको देने वाले श्रेष्ठदाता के उत्तम गुणों को अपने में ग्रहण किया। इसके बाद राजाने हितकारक उत्तम पात्रको मनसा, वाचा, कर्मणासे पवित्र होकर श्रद्धा-भक्ति के साथ विधि पूर्वक खीर का आहार दान दिया।
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