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चौपाई अब जिनपति बहिर सरेसा, पुर ग्राम फिर बहु देशा। कछु ममता अंग न आना, नाना अटवो उद्याना ।।१८।। तप द्वादश भेद बखानौ, जिनवर मन वच तन ठानी। प्रभु अनशन प्रथमहि लीनी, जाब चार प्रहार न कोनौ ।।११॥ फिर अबमोदर तप कहिये, तहं अलप अहार जू लहिये । व्रत संख्या उर अवधारी, सो वस्तु संख्या तप भारी ॥१८२।। भोजन रस स्वाद न कीनौ, रस त्याग महा तप लीना । जब पासन शयन जु न्यारै, विविक्त शय्यासन धारे ।।१८३।। अब काय कलेश स जीज, निज काय क्लेश हि कीजै । वर्षा ऋतु तरके मूला, तह वायु बहै प्रतिकुला ॥१४॥ सित काल नदी सर तीरा, जाड़े सौं कंपत शरीरा । प्रभु ध्यान अगनि तप भारी, शित जाय महाभयकारो ।।१८।। ऋतु ग्रीषम भानु जे तेजा, गिरि तुग शिला की सेजा । सो सरवर रहुइ न कीचा, प्रभु ध्यान सुपय तन सोंचा ।।१८६५ यह वाहिज पट तप गुनिये, याभ्यंतर पट अब सुनिये । जो पूरव चिन्ता त्यागे, निज प्रातम खोज हि लागे ।।१८७१ मद इन्द्रिय धोय बहावं, सो प्रायश्चित्त कहावै । जो होय अपनते भारी, तस् विनय कर अधिकारी ।।१८।। जो रोग सहित तर ही सुपा की कीजै । जो बारह व्रत दृढ़ होई, वैयावृत जानी सोई ॥१८६ | स्वाध्याय पंच विधि कीजं, सो स्वाध्याय हि तग लीज । कायोत्सर्गासन साध, तहं चारौ ध्यान अराधे ।। १६० ।। पिण्डस्थ पदस्थ वखानी, रूपस्थ रूपातित जानो । इमि कर्म महाबन जारी, ता वायोत्सर्ग सुधारौ ॥१९१।।
दोहा वीरनाथ जिनराज ने, द्वादशविध तप कोन । प्रात्मवीर्य परगट भयो, राग द्वेष मद होन ॥१६२।।
हे देव, हे प्रभो, आज आप के आगमनसे मैं धन्य हो गया, आपने मेरे घर को परम पवित्र बना दिया, ऐसा कहने से राजा का वचन पवित्र हो गया। पात्र दान करने से मेरा हाथ एवं शरीर पवित्र हो गया। ऐसा सोचने से राजा को काया शुद्धि हो गयी। उसने कृत प्रादि दोषों से होन प्रासुक अन्नसे होने वाले विमल एषणा (आहार) को शुद्ध किया। इस प्रकार उस कुल राजाने नवधा भक्ति द्वारा महान पुण्य का उपार्जन किया।
वीर-उपवास भगवान महावीर ने बारह वर्ष से भी अधिक महाकठिन तप किया। इस दीर्घकाल में उन्होंने केवल ३४६ दिन ही पारण किया तथा सभी उपवास निर्जल ही थे।
५० अनूपशर्मा : बर्द्धमान (ज्ञानपीट काशी) पृ० ३० । वीर स्वामी ने सांसारिक पदार्थों का राग-द्वेष और मोह ममता तो त्याग ही दी श्री, परन्तु उन्होंने शरीर का मोह भी इतना त्याग दिपा या कि आहार तक से भी अधिक सचिन यो । आहार के लिए नगरी में जाने से पहले ऐसी प्रतिज्ञा, कर लेते थे कि अमुक विधि से आहार पानी मिला तो ग्रहण करेंग वरन् नहीं । वे अपनी कठिन प्रतिज्ञा को किसी के सन्मुख भी न करते थे। अनेक बार ऐसा हुआ कि तीन-तीन चार-चार दिन के बाद आहार को उ और राजा, प्रजा सभी महा स्वादिष्ट भोजन कराने को उनको प्रतीक्षा में अपने दरवाजों पर सट्टे रहे परन्तु विधिपूर्वक
आहार न मिलने पर वह बिना आहार जल लिए जंगल में वापस लौट आये। ऐसे अवसरों पर अपने अन्तराय फ्रम का फल जानवर हृदय में खेद किये बिना ही वह फिर तप में लीन हो जाया करते थे।
एक बार कौशाम्बरी के जंगल में महावीर स्वामी तप कर रहे थे कि उन्होंने प्रतिज्ञा को-आहार किसी राज कन्या के हाथ से लूगा, उस राज्य कन्या का सिर मुडा हुआ हो, वह दामी की अवस्था में कंद हो और आहार में कोदों के दाने दें। देखिये श्री वर्द्धमान महावीर की प्रतिज्ञा कितनी कठोर हैं । कन्या राजकुमारी हो परन्तु उसकी अवस्था दासी की हो और सिर मुडा हो, यदि किसी एक वात की भी कमी रह गई तो आहार-पानी दोनों का साग । बीर स्वामी अनेक बार आहार को उठे परन्तु विधि पूर्वक आहार न हो सका । यहाँ तक कि आहार-पानी लिये उन्हें छः मास हो गये।
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