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दोहा इहि विधि सातौं भंग यह, एक एक भ्रम हर्न। स्याद्वाद कलवा किरन, जगतम नाशन किर्न ।।१६।।
चौपाई
सुन गौतम अब मन वच काय, प्रश्न तनों उत्तर सुखदाय । सप्त तत्त्व सब बरनौं भेद, जात तुम मन नारी खेद ॥१७॥ जीव अजीव आत्रय अरु बंकर निमोक्ष प्रसाध रही सप्त तत्व पहिचान, पाप पुण्य मिलि नौ पद जान ॥१८॥
जीव-तत्व निरूपण' अब सून जीव तत्व विस्तार, ताके है नब भेद अपार । जीव अपर उपजोग प्रमान, मूरत विन करता पुन जान ||१|| भगता देह प्रमानी सबै, थिति संसार माहि है जये। ऊरधगामी सिद्ध सरूप, सुन तिनको वर्णन गुण रूप ।।२०।।
जीव भेद निरूपण
दोहा
चार प्राण व्यौहार नय, निहर्च चेतन एक । इन सौं जो जीवन रहे, सोही जीव विवेक ॥२१॥
सौभाग्यशाली एवं प्रभागा हुया करते हैं। किस कारणसे मनुष्य मूख और पण्डित कुबुद्धि और बुद्धिमान शुभ परिणामो और अशुभ अन्तःकरण वाले हुआ करते हैं। तथा पापात्मा और धर्मात्मा भोगशाली और भोगहीन धनवान् पौर निधन इत्यादि विषम परिस्थिति वाले लोग कैसे हो जाया करते हैं? क्यों कभी अपने कुटुम्बियों एवं इष्ट जनोंका वियोग हो जाता है ? और फिर कभी संयोग क्यों हो जाता है ? किस कारण से पिता के रहते पुत्र मर जाता है ? किसी को पुत्र नहीं होता? कोई स्त्री वध्या हो जातो है इसका कारण क्या है ? किस कर्म के करने से ऐसा होता है ? किसो के पुत्र चिरजोवो होते हैं, कोई कायर होता है इसकी क्या वजह है ? किन कर्मों के प्रभाव से निन्दा और विमल कौति प्राप्त होती है ? मुशोलता और दुःशीलता कैसे प्राप्त हो जाती है? भध्यजीवों को किस कारण से सुसंगति एवं दुःसंगति प्राप्त होती है? विवेकशीलता एवं जड़ता कैसे प्राप्त हो जाती है ? उच्च कल एवं नोच कुल क्यों मिल जाता है ? किस कम के द्वारा मिथ्य मार्ग में प्रवति होतो है? जिन
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१साम्यवाद Trees give fruits, plants flowers, rivers water to anyone whether a man, beast or bird. They do not enjoy themselves, but for the benifit of others. Man is the highest creature, his scrvices to others must be with heart love, without any regard of revengo yain, or reputation in the same spirit as mother's to her children.
.... Jainism A Kcy to Truc Happiness. P. 116. जैनधर्म का तो एकः एक अंग साम्यवाद से भरपूर है । हर प्रकार की दा का तथा भा को नष्ट करके दुरारों की संवा वारना 'निशंकित' नाम का पहला अंग है । संसारी भोगों की इच्छा न परखते हुए केवल मनुस्यों से ही नहीं बल्कि पशु पक्षी तक वो अपने समान जानकर जग के सारे प्राणियों से बांधारहित प्रेम करना 'निःकांक्षित का नाम दूसरा अंग है । अधिवा से अधिक धन, शक्ति और भान होने पर भी दुखी दरिद्री गरीव तक से भी गा न नरना, 'निर्विविकित्सा' नाम का तीसरा अंग है। किसी के भा या लालसा से भी लोकमूटता में न बहकर अपने कर्तव्य से न डिगना 'अमुटदृष्टि' नाम का चौथा अंग है । अपने गुणों और दूसरों के दोषों को छिपाना 'उपगहन' नाम का पांचवा अङ्ग है । ज्ञान, श्रद्धान तथा चरित्र से डिगने वालों को भी छाती से लगाकर फिर धर्म में स्थिर करना स्थितिकरण' नाम का छटा अङ्ग है । महापुरुषों और धर्मामाओं से ऐसा गाढा अनुराग रसना जराा गाय अपने बछड़े से करती है और विनयपूर्वक उनकी सेवा भक्ति करना 'वात्सल्स' नाम का सातवा अंग है। तन, मन, धन से धर्म प्रभावना में उत्साहपूर्वक भाग लेना 'प्रभावना' नाम का आटवां अंग है। जो मन, वचन और काय से इन आठों अंगों का पालन करते हैं, वही सम्बन्ष्टि जनी और स्याद्वादी हैं।
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