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मृगावतो दूजी तिय आन, विश्वनन्दि तिनके उर प्रान । उपज पुत्र त्रिपृष्टकुमार, महाबली अरिदल क्षय कार ।।७।। चन्द्रकान्ति तन विजयकुमार, बली त्रिपष्ट नील वपु धार । होऊ न्यायमार्ग पर वीन, अधिक प्रताप कला सो लीन ।।२।। चरणकमल सेबै बहुभूप, भूचर खेचर असुर अनूप । महा विभव' संपति सुख यान, दिव्याभरण ल हैं गुणभान ।।७।। क्रमसों जोजन प्राप्त भये, लक्ष्मीगृह क्रीडा अति व्य । पूरव पुण्यतनों फल साय, भोग कर मनवांछित लोय ॥७४।। दान शील गुण सोहैं दोय, चन्द्र सुर्यकी पटतर होय । बल नारायण जानो तास, तीन खण्ड अधिपति परकास ॥७॥ विजयारघको उत्तर सैन, अलकापुरी नगर जन चैन । मयूरग्रोव तह राजा जान, रानो नोलयशा गुणखान ॥७६|| विशाखनन्दि भ्रमि बह परजाय, पुण्य फल सर दुजौ पाय । तिनके सुत उपजौ चय देव, अश्वनीव गणमण्डित एव 1॥७॥ प्रतिकेशव अपचको सोय, तान खण्ड भूपति पति होय । जगप्रसिद्ध लक्ष्मी है धाम, सारा सहस सकल तस नाम ||७|| ताही उत्तर श्रेणिप्रधान, रबनूपुर' नगरी शुभ थान । अति मनोज्ञ ऊपमा नहि तास, नमिवंशो भूपति परकास ॥७९॥ ज्वलनजटी है ताकी नाम, चरमशरीरी मुक्त हि धाम। पुण्यवंत छबिवंत अपार, विद्यावंत अनेक प्रकार ||८|| वाही उत्तर अंणि मझार, तिलकापुर नगरी शुभ सार । चन्द्रकोति खगपतिको नाम, प्रिया सुभद्रा तिसके धाम ॥८॥ तिनके वायुसवेगा सुता, सो है रूप कला संयुता। क्रमसों जोवन उपजो जबे, ज्वलन जटी को परणी तब ॥५॥ अर्ककीति सुत तिनके भयो, अर्क समान प्रतापो जयो। दुहिता स्वयंप्रभा गुणलोन, रूपवन्त शुभ चित्र प्रबोन ॥३॥
भरत क्षेत्र के अन्तर्गत ही विजया पर्वत को उत्तर श्रेणी में अलका नाम को एक पुरी है। वहां का राजा मयूरग्रीव तथा रानी नौलंजना थी । दुष्ट विशाखानन्दी का जोव संसार समुद्र में भटकता हुमा, कतिपय पुण्योदय से अश्वग्रीव नाम का उनका पुत्र हया। वह तोन खण्ड पृथ्वो का पति प्रवचक्रो, देवों द्वारा सेव्य तथा प्रतापी सांसारिक भोगों में लीन हुआ । विजयाध के उत्तर में ही रयन पूर देश में एक चक्रवाक नाम की अत्यन्त रमणीक पुरी थी। उस नगरी का राजा ज्वलनजटी था। वह पूण्योदय के फलस्वरूप बड़ा ही तेजस्वी और अनेक विद्याओं का जानकार हुमा।
--. . . . - - १. विशाखनन्दी का जीव अनेक कुगतियों के दुःख भोगता हुआ विजयार्थ पर्वत के उत्तर में अलकापुरी के राजा मपुरखीव की गनी नीलंजना के अश्वनीव नाम का प्रतिनारायण हुआ । वह बड़ा दुष्ट था, इसी कारण इस की प्रजा इससे दुखी थी।
२. विजया के उत्तर में ही रयनपुर नाम के देश में एक चक्रवाक नाम की नगरी थी जिस का राजा ज्वलनजटी था, जिसकी रानी वायुवेगा थी जिसक्ने स्वयंप्रभा नाम की पुत्री थी जिसके रूप को सुनकर अश्वनीव उससे विवाह कराना चाहता था । परन्तु ज्वलनजटी ने अपनी राजकुमारी का विवाह त्रिपृष्ट कुमार से कर दिया। जब अश्वग्रीव ने सुना तो अपने चक्र-रत्न के घमण्ड पर ज्वलनजटी पर आक्रमण कर दिया। बबर मिलने पर त्रिपृष्ट कुमार और उसका भ्राता विजम उसकी सहायता को आ गए। पहले तो दूत भेज कर अश्वग्रीव को समझाना चाहा, परतु वह न माना। जिस पर देश रक्षा के कारण इनको भी युद्ध भूमि में आना पड़ा । वड़ा घमासान का युद्ध हुआ । अवीव योदा था. उसके पास बड़ी भारी सेना थी। दूसरी ओर वेचारा ज्वलनजटी । शेर और बकरी का युद्ध क्या? कई बार जलनजटी की सेना के गाँव उम्बड़ गए। मगर त्रिपृष्ट दोनों हाथों में तलवार लेकर इस वीरता से लड़ा कि अश्वग्रीव के दांत नटे हो गये और जोश में आकर उसने त्रिपष्ट पर अपना चक्र चला दिया। पुण्योदय में वह चक्र त्रिपृष्ट कुमार की दाहिनी भुजा पर आ विराजमान हुया और उसने वह नकरत्न अस्वधीव पर चला दिया जिस के कारण अश्वनीव प्राणरहित हो गया । उसकी फौज भाग गई, त्रिपृष्ट कुमार तीनों खण्ड का स्वामी नारायण हो गया।
अफ्यून का नशा, भंग का नशा, शराब का नशा तो संसार बुरा जानता ही है, किन्तु दोलन तथा हकूमत का नशा इन सत्र में अधिक बुरा है। तीनों स्खण्ड का राज्य प्राप्त होने पर त्रिपृष्ट आपे से बाहर हो गया। गाना सुनने में उसकी अधिक रुचि थी। उसने शय्यालाल को आशा दे रखी थी कि जब तक बह जागता रहे गाना होता रहे और जब उसको नीद आ जाये गाना बन्द करवादे । शय्यापाल को भी गाने में आनन्द आने लगा। एक दिन की बात है कि त्रिपृष्ट सो गया परन्तु शय्यापाल गाने में इतना मस्त होगया कि विपष्ट के सो जाने पर भी उसने गाना बन्द न करवाश । जब विपृष्ट जागा तो उस समय तक गाना होते देख कर वह याग अबूला हो गया और उसने शय्यापाल के कानों में गर्म शीशा भरवा दिया। विषय भोग में फसे रहने के कारण यह मर कर महातमप्रभा नाम के सातवें नरक में गया जहाँ एतने महादुख उठाने पड़े कि जिन को सुन कर हृदय कोप उठता है।