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यत्रवेणो महाराजस्तत्रोपापास्वरान्वितः ।
सभायां तस्य वेणस्य प्रविवेश सपापवान् ।।" वह नग्न साधु महाराज वेण की राजसभा में पहुंच गया और धर्मोपदेश देने लगा।' इससे प्रगट है कि दिगम्बर मुनि राजसभा में भी बे रोक-टोक पहुंचते थे । वेण ब्रह्मा से छठी पीढ़ी में थे। इसलिए वह एक अतीव प्राचीन काल में हुए प्रमाणित होते हैं।
'बायुपुराण' में भी निन्य थमणों का उल्लेख है कि श्राद्ध में इनको न देखना चाहिए ।।
'स्कंधपुराण' (प्रभासखण्ड के वस्त्रापथ क्षेत्र माहात्म्य अ०१६ पृष्ठ २२१) में जैन तीर्थकर नेमिनाथ को दिगम्बर शिव के अनुरूप मानकर जाप करने का विधान है :
वामनोपि ततश्चक्र तत्र तीर्थावगाहनम् । शादग्रपः शिवोदृष्ट: सूर्यबिम्बे दिगम्बर ||४|| पद्मासन स्थितः सौम्य स्तथातं तत्र संस्मरन् । प्रतिष्ठाप्य महामूर्ति पूजयामासवासरम् ||६|| मनोभीष्ठार्थ सिद्धपर्थ ततः सिद्धमवाप्तवान् ।
नेमिनाथ शिवेत्येवं नासचके शवामनः ।।६६|| इस प्रकार हिन्दू पुराण ग्रन्थ भी इतिहासातीत काल में दिगम्बर जैन मनियों का होना प्रमाणित करते हैं।
बौद्ध शास्त्रों में भी ऐसे उल्लेख मिलते हैं जो भगवान महावीर के पहले दिगम्बर मुनियों का होना सिद्ध करते हैं। बौद्ध साहित्य में अंतिम तीर्थकर निर्गन्य महावीर के अतिरिक्त श्री सुपार्श्व अनन्तजिन' और श्रीपुष्पदन्त के भी नामोल्लेख मिलते हैं । यद्यपि उनके सम्बन्ध में यह स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि वे जैन तीर्थकर और नग्न थे, किन्तु जब जैन साहित्य में उस नाम के दिगम्बर वेषधारी तीर्थकर महामुनीश मिलते हैं, तब उन्हें जैन और नग्न मानना अनुचित नहीं है । वैसे बौद्ध साहित्य भगवान पार्श्वनाथ के तीर्थवर्ती मनुष्यों को नग्न प्रगट करता है। अत: इस श्रौत्र से भी प्राचीन काल में दिगम्बर मुनियों का होना सिद्ध है।
इस अवस्था में जन शास्त्रों का यह कथन विश्वसनीय ठहरता है कि भगवान ऋषभदेव के समय से बराबर दिगम्बर जैन मुनि होते आ रहे हैं और उनके द्वारा जनता का महत कल्याण हुआ है। जैन तीर्थकर सब ही राजपुत्र थे और बड़े २ राज्यों
१. उसने बताया कि मेरे मत में--
"अहन्तो देवता यत्र निग्रन्थों गुरुरुच्यते ।
दया व परमो धर्मस्तत्र मोक्षः प्रदृश्यते ।" यह सुनकर वेण जनी हो गया। (एवं बेणस्व वे राजः सृष्टिरेव महात्मनः। धर्माचार परित्यज्यकथं पागे मतिर्भवेत् ।।) जन सम्राट खारवेल के शिलालेख से भी राजा वेण का जैन होना प्रमाणित है। (जर्नल अव दी विहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी, भा० १३ पृ० २२४) २. JG.XIY 162
३. पुरात्व, पृ० ४ पृ० १८१ ४. वेजे ग. ३४॥
५. 'महावग्ग' (१। २२-२३ S. B.E. 144) में लिखा है कि बुद्ध राज ग्रह में जब पहले-पहले धर्म प्रचार को आए तो लाठी वन, में 'सुष्पतित्थ्य" के गन्दिर में ठहरे। इसके बाद इस मन्दिर में ठहरने का उल्लेख नहीं मिलता। इसका यही कारण है कि इस जैन मन्दिर के प्रबन्धकों ने जब यह जान लिया कि म० बुद्ध अब जैनमुनि नहीं रहे तो उनका आदर करना रोक दिया। विशेष के लिए देखो भम प०५०-५१
६. उपक आजीवन अनन्त' जिनको अपना गुरु बताता है। प्राजीविकों ने जन धर्मों से बहुत कुछ लिया था। अतः यह अनन्तजिन तीर्थकर ही होना चाहिए । अारिय-परिपेषण-सुत्त IH QJII 247
७. 'महावस्तु में पुरुषदन्त को एक बुद्ध और ३२ लक्षणयुक्त महापुरुष बताया है। ASM.P 30.
८. 'महावग्ग' 12-२०-३] में है कि बौद्ध भिक्षओं से नंगे और भोजन पात्रहीन मनुष्यों को दीक्षितकर लिया, जिस पर लोग कहने लगे कि बौद्ध भी "तित्थियों" की तरह करने लगे। तित्थिय म बुद्ध और भ० महाबीर से प्राचीन साधु और खासकर दि० जन साधु थे। इस निए इन्हें भ० पार्श्वनाथ के तीर्थ का मुनि मानना ठीक है। भमचुत, पृ०२३६-२३७, व जैसिभा०, ११२-२।३४ २६ IA., August 1930.
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