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१२. ज्योतिष लोक सामान्य दिवेश
पूर्वोक्त चित्रा पृथ्वी से ७६० योजन ऊपर जाकर ११० योजन पर्यन्त आकाश में एक राजू प्रमाण विस्तृत ज्योतिष लोक है। नीचे से ऊपर की ओर क्रम से तारागण, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, शुक्र, बृहस्पति, मंगल, शनि व शेष अनेक ग्रह अवस्थित रहते हए अपने-अपने योग्य संचार क्षेत्र में मेरु की प्रदक्षिणा देते रहते हैं। इनमें से चन्द्र इन्द्र है और सूर्य प्रतीन्द्र। १ सूर्य, EE ग्रह, २८ नक्षत्र व ६६९७५ तारे, ये एक चन्द्रमा का परिवार है। जम्बू द्वीप में दो, लवण सागर में ४, धातकी खण्ड में १२, कालोद में ४२ और पूष्कराध में ७२ चन्द्र हैं। ये सब तो चर अर्थात चलने वाले ज्योतिष विमान हैं। इससे ग्रागे पुष्कर के परार्ध में ७ पुष्करोद में ३२, वारुणीवर द्वीप में ६४ और इससे आगे सर्व द्वीप समुद्रों में उत्तरोत्तर दुगुने चन्द्र अपने परिवार सहित स्थित हैं। ये अचर ज्योतिष विमान है। [दे. ज्योतिष/२]
१३. कललोक सामान्य परिचय
समेरू पर्वत की चोटी से एक वाल मात्र अन्तर से ऊर्च-लोक प्रारम्भ होकर लोक शिखर पर्यन्त १००४०० योजन कम ७ राजु प्रमाण ऊर्ध्वलोक है। उसमें भी लोक शिखर से २१ योजन ४२५ धनुष नीचे तक तो स्वर्ग है और उससे ऊपर लोक शिखर पर सिद्ध लोक है। स्वर्ग लोक में आर-ऊपर स्वर्ग पटल स्थित हैं। इन पटलों में दो विभाग_कल्लत कल्पातीत । इन्द्र सामानिक प्रादि १० कल्पनाओं युक्त देव कलावासी हैं और इन कल्पनामों से रहित अहमिन्द्र कल्पातीत विमानवामी । पाठ युगलों रूप से अवस्थित कल्प पटल १६ हैं-सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, पानत, प्राणत, पारण, और अच्युत । इनसे ऊपर ग्रेवेयेक, अनुदिश व अनुत्तर ये तीन पटल कल्पातीत हैं। प्रत्येक पटल लाखों योजनों के अन्तराल से ऊपर-ऊपर अवस्थित है। प्रत्येक पटल में प्रसंख्यात योजनों के अन्तराल से अन्य क्षुद्र पटल हैं। सर्व पटल मिलकर ६३ है। प्रत्येक पटल में विमान हैं। नरक के बिलोंवत् ये विमान भी इन्द्रक श्रेणीबद्ध ष प्रकीर्णक के भेद से तीन प्रकारों में विभक्त हैं। प्रत्येक क्षुद पटल में एक-एक इन्द्रक है और अनेकों श्रेणीबद्ध व प्रकीर्णक । प्रथम महापटल में ३३ और अन्तिम में केवल एक सवार्थसिद्धि नाम का इन्द्रक है, इसकी चारों दिशाओं में केवल एक-एक श्रेणीबद्ध है। इतना यह सब स्वर्गलोक कहलाता है [नोट:-चित्र सहित विस्तार के लिये दे. स्वर्ग साथ सिद्धि विमान के ध्वज दण्ड से २६ योजन ४२५ धनुष ऊपर जाकर सिद्ध लोक है। जहां मुक्तजीव' अवस्थित हैं । तया इसके आमे लोक का अन्त हो जाता है। दे. मोक्ष/१/७]
आठ पृवियों के नीचे लोक के तल भाग में एक राजु की ऊंचाई तक इन वायु मण्डलों में भे प्रत्येक की मुटाई बीस हजार योजन प्रमाण है।
घ. उ. २००००+घ. २००००-त. २०००० = ६०००० यो. लोक के तल भाग में एक राजु कार तक वातवलयों की मुटाई।
सातवें नरक में पृथ्वी के गार्श्वभाग में कम से इन तीनों वातबलबों को मुटाई सात, पांच और चार तथा इसके ऊपर तिर्थग्लोक (मध्य लोक) के पार्श्वभाग में पांच, सार और तीन योजन प्रमाण है।
सातती पृथ्विी के पास तीनों वातवलयों की मुटाई-ब.उ. ७+घ+त ४ -१६ योजन मध्य लोक के पास प. उ.५+५४+ त ३=१२ योजन।
इसके आगे तीनों वायुओं की मुटाईबहा स्वर्ग के पाव भाग में क्रम से सात, पांच और चार योजन प्रमाण, तथा ऊर्ध्व लोक के अन्त में (पाच भाग में) पांच, चार और तीन योजन प्रमाण है। ब्रह्म स्वर्ग के पास यो', ५,४; लोक के अन्त में यो० ५,४, ३ ।
लोक के शिखर पर उक्त तीनों वातवनयों का बाहय क्रमशः दो कोस और कुछ कम एक कोस है। यहां तनुवातवलय की मुटाई जो एक कोस से कुछ कम बतलाई है, उस कमी का प्रमाण चार सौ पच्चीस धनुप है !
लोक शिखर पर घनोदधिवात की मुटाई को २ धन वा० कोत. व० धनुष कम १. (धनुष १५७५)