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एक काव्य हम कहैं प्रतक्ष, तिनको अरथ कर ये दक्ष । तो ये हो हमरे गुरु होय, हम इनके सेवक पद जोय ॥३३॥ तवहि इन्द्र वोल्यो इम बैन, शांतरूप हो घर मन चैन । जो एतो बुधि हमरो होइ, तो गौतम के पद किम जोह ॥३४॥ तुम पुर बालक हो मद भरे, विनय न जानो मन अनि खरे। तब गौतम शिष्यनि वरजियौ, हरको समाधान कर हियौ ॥३॥ बद्ध वित्र तुम हम वच सुनी. अपनो काव्य जथा प्रति भनौं । नव सुरपति मन मनहि विचार, काल्यादिक पढ़ि गुणधार ||३६॥
उक्तं च काव्यम् काल्यं द्रव्यपटक नवपद सहितं, जीव पट काय लेश्या: । पंचान्ये चास्ति काया, व्रतसमितिगतिज्ञानचारित्रभेदाः ।। इत्येतन्मोक्षमल त्रिभवनमाहितः, प्रोक्तमहभिरीमैः । प्रत्येति श्रद्धधाति स्पृशति च मतिमान् यः सर्व शुद्ध ष्टिः ।।
चौपाई
काव्य रूप गौतम जब देख, अति अचम्म मनही में पेख । मान भंग मेरौ अब भयो, काव्य अर्थ कर विकलप लयौ ॥३७।। दर काव्य कहो यह देव, इत्य प्ररथ धारै नहि भेव । काल्यं यह अर्थ अपार, तीन काल दिन मांहि विचार ।।३।। तीन काल इक वर्य मंभार, भूत भविष्यत वर्तनहार । षट द्रव्यहि कि कहिये भाख, कौन ग्रन्थ की दोज साख ॥३६॥ कहा सकल गति कहिये भेद, अरु तिनके लक्षण कर खेद । पादारथ व त पूर्वक घने, ताको भेद कहत नहि बने ।।४०।। विश्व कौन कहिये अवभास, तीन लोक अरु पूर्ण प्रकास । पंचास्तिकाय कहिये किम भास, कौन पत्रव्रत को समझास ॥४१॥ पंच समिति पुन कहिसौ कहाँ, पत्र ज्ञान सो क्यों सरदहीं। सप्त तत्व कहिय बयों भेद, धर्म कौन विधि है बहु खेद ॥४२॥ सिद्धि निरूप वरण को सके, मारग विधि अनेक कहि थके। कौन सरूप कहन की नाहि, किहि को भेद मनेक लखाहि ॥४३॥ तास जनित फल कहिये कौन, पट्कायी जीवन बह जीन । षटलेश्याकी अधिकी रीत, श्रुतज्ञानकी है मो भीत ॥४४॥ इहि प्रकार लख नहि जब जान, मनमें गौतम भय तब मान । जो कहूं अर्थ संभव नाहि, तो मुहि मान जाय छिन माहि ॥४॥ वीरनाथ सर्वज्ञ सुजान, विश्व तत्वक वेदक दान । तिनकर कथित काव्य गभीर, तास अर्थको समरथ धीर ॥४॥ यह द्विज सौं जो कीजे वाद, हार जाते होय विषाद । बुध सामान्य याहिको जान, मानभंग ही लही निदान ॥४७॥ अवहि चलो बने उन पास, वादविवाद करै नहिं हास । वे त्रिलोक स्वामी जिनराज, तिन समीप आवै नहि लाज ॥४८।।
दिशा से लेकर सभामण्डप के प्रथम कोष्ठ पर्यंत अनेक गणधर एवं मुनीश्वर क्रमबद्ध होकर बैठे हये थे। दूसरे परकोष्ठ में प्रजिका कल्पवासिनी इन्द्राणी इत्यादि देवियों बैठी हुई थी, तीसरे परकोष्ठ में धाविकाएँ थी चौथे में ज्योतिषी देवों की देवियां बैठी हुई थीं पांचबे में व्यन्तरों की देवियां, छठ में प्रसाद निवासियों की पद्मावती इत्यादि देवियां, सातवे में भवन निवासी धरणन्द्र इत्यादि देव. प्राठवमें इन्द्रों से युक्त व्यन्तर देव, नवमें इन्द्रों से युक्त चन्द्र-सूर्य इत्यादि ज्योतिषी देव दशवें में कल्पनिबासी देव, ग्यारहवे में विद्याधर एवम् मनुष्य इत्यादि और बारहवें परकोष्ठ में सिंह, हरिण इत्यादि तिर्यच बैठे हुए थे । इस प्रकार बारहों सभा मण्डप के प्रकोष्ठों में जीव सम्ह श्रेणिबद्ध होकर पृथक्-पृथक् त्रिलोक के गुरु महावीर प्रभु के सामने हाथ जोड़े हए बिनम्र भाव से प्रभके उपदेश रूपी अमत को पीकर पापाग्नि के सन्ताप को शान्त करने की इच्छा से बैठे हुए थे। सभा मण्डप में उन सम्पूर्ण जीव समूहों से दिसा जगत्पति श्रीमहावीर प्रभू धर्मात्मानों के बीच में साक्षात् धर्म-मूतिके समान विराजमान थे और उनके अलौकिक प्राकर्षण से सभी लोग प्रभावित थे । . . इसके बाद बेबोंसे युक्त इन्द्र धर्मरूपी उत्तम रस प्राप्तिकी इच्छा से अत्यन्त विनम्र रूप से जय जयकार करने लगे और प्रभु के सभा-मण्डप की तीन बार प्रदक्षिणा करके श्रद्धाभक्ति पूर्वक उन जगद्गुरु भगवान के दर्शन की इच्छा से सभा-मण्डप में प्रविष्ट द। वह समवशरण भूमि भव्य जीवों के लिए शरणस्वरूप थी। वहां पर पहुंच जाने के बाद इन्द्रादि देवों ने मानस्तम्भ महान चैत्य वक्ष एवं अन्य स्तूपों में प्रतिविम्बिब जिनेन्द्र और अनेक श्रेष्ठ सिद्ध पुरुषोंकी मूर्तियों का पवित्र प्रासक जल इत्यादि पूजा