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'ऋग पुनि यजुर साम भणि तीन, और अथर्वन गयौ प्रवीन । चार वेद ये थापं नए. जग जन पूज्य व्यास तुम भए ।।१३।। अरु अष्टादश कथे पुरान, तिनहि नाम संक्षप बखान । मत्स्य पुराण प्रथम अबधार, चौदा सहस श्लोक विस्तार ।।१४।। कर्म द्वितीय पुराण कहेव, सत्रह सहस श्लोक गने । पुनः वराह तृश्यत: नाम, वि.हजार शो हैं अभिराम ।।१५।। फिर नरसिंह चतुर्थम भनौ, सत्रह सहस श्लोकहि गनौ । बलि वामन पंचमहि पुरान, दश हजार ताको उनमान ॥१६॥ पदमपुराण छठम कहि वीर, पचपन सहस श्लोक गम्भीर । विष्णु सातमो कही पुरान, पन्द्रह सहस तास परवान ।।१७11 पुन ब्रह्मांड अष्टमी सोय, बारह सहस कहाँ अवलोय । ब्रह्म विवर्त नवम गुणधार, दश हजार श्लोक निरधार ॥१८॥ ब्रह्म नारदी दशमी तेव, तेइस सहस श्लोक कहेव । गरुडपुराण ग्यारहमौं जोय, सहस उनीस श्लोक कही सोय ।।१६।। शिवलिगी द्वादशमो लस, एकादश सहस्र तिहि वसै। भविषोत्तर तेरम जु बखान, पन्द्रह सहम श्लोवा परवान ||२|| मारकांडे चौदमो होय, नव सहस्र लोक गिन सोय । अगनिपुराण पंद्रमौ नाम, तीन सहश शोभं अभिराम ।।२१।। सोरहमो कहिए प्रसकन्ध, सहस अठारह तास प्रबन्ध । तिनके तीन काण्ड कर भेव, तिनके नाम सुनो भो देव ।।२२।। रेबी प्रथम जानिये वीर, उत्तर दूजो अति गम्भीर । काशी काण्ड तीसरो जान, अब सत्रह भरता हो पुरान ॥२३॥ सवालाख श्लोक प्रमान, तिनके पर्व अठारह धार । आदिपर्व पुन सभा द्वितीय, अरु आरण्य कहो जुतीय ॥२४॥ विराट पर्व चौथो जानिये, उदगम पंचम मानिये। भीषम छठम सप्तम द्रोन, अष्टम कर्ण नवम सल्यान ॥२५॥ जद्ध दशम अस्त्री गैरमौ, सूतिक पर्व कही बारमौ। सांति तेरमा कही बखान, अश्वमेध पुन चौदम जान ||२६।। अनुगासन पन्द्रमो जु लीन, व्यासाश्रम पोडा परवीन । मुसल सश्रमो कहिये सोय, दिवाधि रोह अष्टदश होय ॥२७॥ अब भागवत कहौ अनन्द, हैं तिनके बारह अस्कन्ध । अठारम है शास्त्र प्रधान, सहस अठारह श्लोक प्रमान ।।२८।। इतनी काव्य करी तुम देख, एक काव्य हम अर्थ विशेख । तुम हो शोतरूप गुणवान, बड़े पुरुष जगमें बलवान ॥२६॥ यह बत्र सुन बोली द्विज तब, अपनो काव्य पढ़ो तुम अबै । जो मैं ठीक अरथ कर देव, तो तुम कहा करौ हम सेव ॥३०|| तब मुरपति बोल्यो यह सोय, जो तुम काव्य प्ररथ शुभ होय । तो तुमरो मैं शिष्य प्रमान, तुम हो मेरे गुरु परधान ।।३१११ गौतम तने पंचशत शिष्य, सौ बोले इमि कहैं भविष्य । भो गुरु ! यह वादी है कोय, मेरे वचन मन दृढ़ सोय ।।३२।।
उज्ज्वल प्रकाश छिटक रहा था । और छत्र दण्डमें भी अनेक बहुमूल्य रत्न जड़ हुए थे । रत्नोंसे युक्त छत्रकी शोभा इतनो विशेष थी कि उसके सामने चन्द्रमाकी भी किरणे कुछ फीकी सी जान पड़ती थी। क्षीर समुद्रके उज्ज्वल जलके एकदम श्वेत चौसठ चमरों को हाथ में लेकर यक्ष लोग दुला रहे थे । वे बाह्य एवं पाभ्यन्तर शोभा से मुक्ति रूपिणी स्त्री के अनन्यतम बर जान पड़ते थे। इसी समय मेघ के समान गम्भीर ध्वनि करने वाले साढ़े बारह करोड़ बाजों को देवों ने जोर जोरसे बजाना प्रारम्भ किया। उन वाद्योंका तुमुलरव ऐसा जान पड़ता था मानौ कर्मरूपी महा शत्रुओं को ललकारते हुए अपने नाना प्रकार के शब्दों से भव्यों के सामने जिनोत्सव को प्रकट कर रहे हों । अत्यन्त उज्ज्वल और दिव्य औदारिक शरीर से निकलता हुआ देदीप्यमान प्रभा-पूज करोड़ों सूर्य की रश्मिराशि से भी अधिक प्रखर था। वह प्रकाश मण्डल सब पापियों के नेत्रों को प्रिय था और उज्ज्वल यश का एक समष्टि भूत रूप था । वह सम्पूर्ण बाधाओं को दूर करने वाला और तेज का अक्षयकोश था। जिनेन्द्र श्री महावीर स्वामी के मुख से नित्यशः जो दिव्य ध्वनि निकला करती थी वह सबका कल्याण एवं हित करने वाली होती थी। वह अलौकिक वाणी तत्त्व स्वरूप एवं धर्म स्वरूप को विशद प्रकार से बताने वाली थी। जिस प्रकार मेघों का बरसाया हुआ जल पहले एक ही रहता है और फिर पात्रभेदसे नाना नाम एवं रूप कायमें बदल जाता है उसी तरह प्रभुकी दिव्य ध्वनि भी प्रथम अनक्षरी एक रूप ही निकलती है और बाद में अनेक देशों में उत्पन्न मनुष्य, देव एवं पशुओं की अक्षरमयी अनेक भाषा में संदेहों को दूर कर देने वाले धर्म का उपदेश करने वाली हो जाती है।
रत्न त्रि-पीठके ऊपर सिंहासनारूढ़ श्रीमहावीर प्रभु धर्मराज के समान जान पड़ते थे। वे महान एवं अलौकिक आठ प्रतिहार्यों से अलंकृत होकर सभामण्डप में विराजमान थे और उनकी अतुलनीय शोभा अवर्णनीय थी 1 महावीर प्रभुको पूर्व