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के स्थान को छोड़ने का उद्यम करता है उसी प्रकार वह राजा भी चिरकाल से रहने के स्थान-स्वरूप संसाररूपी स्थली को छोड़ने का उद्यम करने लगा। उसने घनरथ नामक पुत्र के लिए राज्य देकर संयम धारण कर लिया और ग्यारह अंगरूपी सागर का पारगामी होकर तीर्थकर प्रकृति का बन्ध किया। अन्त में सल्लेखना धारण कर शरीर छोड़ा और अच्युत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में इन्द्रपद प्राप्त किया। वहां उसकी प्रायू बाईस सागर थी, शरीर साढ़े तीन हाथ का था, शुक्ललेल्या थी, वह ग्यारह माह में एक बार श्वास लेता था, वाईस हजार वर्ष बाद श्राहार ग्रहण करता था, मानसिक प्रवीचार से सुखी रहता था, तमःप्रभा नामक छठवी पृथ्वी तक उसका अवधिज्ञान था और वहीं तक उसका बल, विक्रिया मीर तेज था । इस प्रकार चिरकाल तक सख भोगकर वह इस मध्यम लोक में आने के लिए सम्मुख हुआ।
उस समय इस जम्बूद्वीप के दक्षिण भरत क्षेत्र की अयोध्या नगरी में इक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्री महाराज सिंहसेन राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम जयश्यामा था। देवों ने उसके घर के आगे छह माह तक रत्नों को श्रेष्ठ धारा बरसाई। कार्तिक कृष्णा प्रतिपदा के दिन प्रात:काल के समय रेवती नक्षत्र में उसने सोलह स्वप्न देखने के बाद मह में प्रवेश करता हमा हाथी देखा । अवधिज्ञानी राजा से उन स्वप्नों का फल जाना । उसो समय वह अच्युतेन्द्र उसके गर्भ में प्राकर स्थित हुया जिससे वह बहत भारी सन्तोष को प्राप्त हुई । तदनन्तर देयों ने गर्भकल्याणक का अभिषेक कर वस्त्र, माला और बड़े-बड़े आभपणां से महाराज सिंहसेन और रानी जयश्यामा की पूजा को । जयश्यामा का गर्भ सुख से बढ़ने लगा। नव माह व्यतीत होने पर उसने ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशी के दिन पूषयोग में पुष्पवान पुत्र उत्पन्न किया । उसो समप इन्द्रों ने प्राकर उस पुत्र का नेह पर्वत पर अभिषक किया और बड़े हर्ष से अनन्तजित यह सार्थक नाम रखा।
धी विमलनाथ भगवान के बाद नौ सागर और पौन पल्य बोत जाने पर तथा अन्तिम समय धर्म का बिच्छेद हो जाने पर भगवान अनन्तनाथ जिनेन्द्र, उत्पन्न हुए थे, उनकी आयु भी इसो अन्तराल में शामिल थी। उनको प्रायु तोन लाख वर्ष की थो, शरीर पचास धनुष ऊँचा था, देदोप्यमान सुवर्ण के समान रंग था और वे सब लक्षगों से सहित थे। मनुष्य, विद्याधर ओर देवों के द्वारा पूजनीय भगवान अनन्तनाथ ने सात लाख पचास हजार वर्ष बीत जाने पर राज्याभिषेक प्राप्त किया था। और जब राज्य करते हुए उन्हें पन्द्रह लाख वर्ष बीत गये तब किसी एक दिन उल्कापात देखकर उन्हें यथार्थ ज्ञान उत्पन्न हो गया। वे सोचने लगे कि यह दुष्कर्मरूपी वेल अज्ञानरूपी बोज से उत्पन्न हुई है, असंयमरूपी पृथ्वी के द्वारा धारणा को हुई है, प्रमादरूपी जल से सींची गई है, कषाय ही इसकी स्कन्धयप्टि है-बड़ो मोटी शाखा है, योग के आलम्बन से बढ़ी हुई है, तिर्यञ्च गति के द्वारा फैली हुई है, वृद्धावस्था रूपी फूलों से ढकी हुई है, अनेक रोग हो इसके पत्तं हैं, और दुःख रूगी दुष्ट फलों से झक रही है । मैं इस दुष्ट कर्मरूपी वेल को सुक्ल ध्यानरूपी तलवार के द्वारा प्रात्मकल्याण के लिए जड़-मूल से काटना चाहता है।
ऐसा विचार करते ही स्तुति करते हुए लोकान्तिक देव ना पहुंचे । उन्होंने उनकी पूजा को, विजयो भगवान ने अपने अनन्तविजय पुत्र के लिए राज्य दिया; देवी ने तृतीय-दीक्षा-कल्याणक की पूजा को, भगवान सागरदत्त नामक पालको पर सवार होकर सहेतुक वन में गये और यहां बेला का नियम लेकर ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी के दिन सायंकाल के समय एक हजार राजायों के साथ दीक्षित हो गये । जिन्हें मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त हुमा और जो सामायिक संयम से सहिन हैं ऐसे अनन्तनाथ दसरे दिनचर्या के लिए साकेतपुर में गये। वहाँ सुवर्ण के समान कान्ति बाले विशाख नामक राजा ने उन्हें पाहार देकर स्वर्ग तथा मोक्ष की सचना देने वाले पंचाश्चर्य प्राप्त किये। इस प्रकार तपश्चरण करते हुए जब छमस्थ अवस्था के दो वर्ष वःत गये तब पोसतक बन में अश्वत्थ-पीपल वक्ष के नीचे चैत्र कृष्ण अमावस्या के दिन सायंकाल के समय रेवती नक्षत्र में उन्होंने ज्ञान उत्पन्न किया । उसी समय देवों ने चतुर्थ कल्याणक की पूजा की।
जय आदि पचास गणधरों के द्वारा उनकी दिव्य ध्वनि का विस्तार होता था, वे एक हजार पूर्व धारियों के द्वारा वन्दनीय थे, तीन हजार दो सौ वाद करने वाले मुनियों के स्वामी थे, उन्तालीस हजार पांच सौ शिक्षक उनके साथ रहते थे,
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