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पिता सहित मन कियो विचार, कोजे कछु धर्म विस्तार। राज मान अरु धन मन सबै, ताको फल कछु लीजैबै ॥२६७।। तबहि प्रतिष्ठाको विधि करी, रच्यो दिवाली उत्तम घरी । जिन प्रतिमा पधराई जहां, तोरन वजा छन्न अतितहां ।।२६८।। श्रावक देश देश के प्राइ, तिनको प्रादर अधिक कराइ । अरु पूजा को विधि सब कीन, जथाजोग भावधुत लीन ।।२६६।। चार संघ को दोनो दान, अरु कोनी सबको सन्मान । पुन रथ को फेरो चल पाप, ऊपर श्री जिनप्रतिमा थाप ॥३००।। नगर चौधरी लोधी जान, तिन कीनी अधिको सनमान । चार संघ मिलि टीका कियौ, सिंगई पद सब जुरके दियतो ॥३०१।।
दोहा सोरहसौ इक्यावनै, अगहन शुभ तिथि वाट । जुग जुझार हन्तेल कुल, तिनके राज मंझार ।।३०२।। यह संक्षेप बखान कर, कह्यो प्रतिष्ठा धर्म। परिजन जुत वाड़ी विभव, तिन उत्पति बहु धर्म ।।३०३।।
चौपाई सिंगही रतनशह गुन जुत्त, तिनके भये जदोले पुत्त । तिनके तनुज अनंदीराम, तिनके सुतहि जगत मनिराम ।।३०४।।
दोहा
क्षेत्रबिपाकी प्रक्रति वश, तज्यो भेलशो ग्राम । देश खटोला निज नगर, ग्राय कियौ विधाम । तिनके उपजे चार सूत, प्रथम हि केशव राय । हरज खाडेराय पुन, परमानन्द जु भाय ।।३०६।। तिनमें खाडेराय के तीन पुत्र परवान । प्रथम हि देवाराय मद, भोज इन्द्र मनमान ||३०७।। सिंधई देवाराय घर, प्रानमती उर धार । चार पुत्र तिनके भये, कही नाम अनसार ||३011
चौपाई
प्रथम हि नवलशह जानियो, दूज तुलाराम मानियो । तो घासीराम बखान, चौथे बांधव सिंह खुमान ||३०६।। प्रथमदिनवलशाह तिहि नाम, ग्रन्थारम्भ कियौ अभिराम । अब तिहि देश राजके धनी, बंश बुन्देला सब शिरमनी ॥३१॥
दोहा
क्षत्रशाल पत्ती प्रवल, नाती श्री हिरबेश । सभा सिंध सुत हिंदुपति, करहि राज इहि देश की ईति भीति व्यापं नहीं, परजा अति प्रानन्द । भाषा पढ़े पढ़ावहीं, स्त्रटपुर श्रावक वृन्द ।।३१२॥
शीर बनावे? इस प्रकार और भी प्रार्थना कर चुकने के बाद ग्रन्थकार कवि कहते हैं कि मैंने चरित्र रचना के भशा मेनत मस्तक होकर महावीर प्रभु के चरण कमलों को प्रणाम किया है, भक्तिपूर्वक अपनी वाणी से महावीर प्र सार मागणों की प्रशंसा एवं स्तुति की है। अपने पवित्र भावों के द्वारा श्रद्धावश होकर अनेकशःप्रभ की पजा की ।
HT सम्यकदर्शनादि तीन रत्न एवं उनसे उत्पन्न और भी अन्यान्य सम्पूर्ण शुभ साधन मुझ लोभी को सम्बक
ममत्पन्न संयम को. मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा से धारण कर लिया था वे महावीर प्रभ हमें भी इस लोक एवं सिकेसम्पर्ण कारणों को प्रदान कर अनग्रहीत कर ! जिन्होंने अपने परमोत्तम ध्यानरूपी अति तोक्षण प्रष्टि से कर्म मी मनाशत्रयों का संहार कर सहज म हो मोक्ष पदवा का पा लिया,ब महन्त जिनेन्द्र प्रभु हमें भी इन्द्रिय रूपी चोरी तथा कर्मरूपी महाशयों का शीघ्र नाश कर दें। जिसमें कि मैं भी मोक्ष का अधिकारी हो जाती प्रान्त एवं निर्मल केवल जानादि उत्तम गुणों को पा लिया वे हो हमें भी प्रदान वारें । प्रभ ने विधि पवन
पीमख शान्ति पाने के लिए निर्मल एवं अनन्त मुक्ति प्रदान कर । ग्रन्थकार कवि पूनः प्रात्म निवेदन स्वीकत कर लिया हमें भी सुख शान्ति पाने के लिए निर्मल एवं अनन्त मक्ति प्रदाम