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अवश्य हो । धर्म दया रूप हैं, परन्तु वह दयारूप धर्म परिग्रह सहित पुरुष के कैसे हो सकता है ? वर्षा पृथ्वीतल का कल्याण करने वाली है परन्तु प्रतिबन्ध के रहते हुए कैसे हो सकती है ? इसीलिए आपने अन्तरंग-बहिरंग - दोनों परिग्रहों के त्याग का उपदेश दिया है । हे वासुपूज्य जिनेन्द्र ! पाप इसी परिग्रह-त्याग की वासना से पूजित हैं। जो पहले जन्म में पद्मोत्तर हुए, फिर महाशुक्र स्वर्ग में इन्द्र हुए, वह इन्द्र जिनके कि चरण, देवरूपी भ्रमरों के लिये कमल के समान थे और फिर त्रिजगत्पूज्य वासुपूज्य जिनेन्द्र हुए, वह जिनेन्द्र, जिन्होंने कि बालब्रह्मचारी रह कर ही राज्य किया था, वे बारहवें तीर्थकर तुम सबके लिए अतुल्य सुख प्रदान करें।
अथानन्तर–श्री वासुपूज्य स्वामी के तीर्थ में हिपृष्ठ नाम का राजा हुआ जो तीन खण्ड का स्वामी था और दूसरा अर्धचक्री (नारायण) था । यहां उनका जन्म सम्बन्धी चरित्र कहता हूं जिसके सुनने से भव्य-जीवों को संसार से बहुत भारी भय उत्पन्न होगा। इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र मे एक कनकपुर नाम का नगर है। उसके राजा का नाम सुवेण था। सुवेण के एक गुणमंजरी नाम की नृत्यकारिणी थी। वह नृत्यकारिणी रूपवती थी, सौभाग्यवती थी, गीत नृत्य तथा बाजे बजाने प्रादि कलाओं में प्रसिद्ध थी। और दूसरी सरस्वती के समान जान पड़ती थी, इसीलिए सब राजा उसे चाहते थे। उसी भरत क्षेत्र में एक मलय नाम का मनोहर देश था, उसके विन्ध्यपुर नगर में विन्ध्यशक्ति नाम का राजा रहता था। जिस प्रकार मधुरता के रस से अनुरक्त हुआ भ्रमर प्रानमंजरी के देखने में आसक्त होता है उसी प्रकार वह राजा गुणमंजरी के देखने में प्रासक्त था।
उसने नृत्यकारिणी को प्राप्त करने की इच्छा से सुवेण राजा का सन्मान कर उसके पास रत्न आदि की भेंट लेकर चित्त को हरण करने वाला एक दूत भेजा । उस दूत ने भी शीघ्र जाकर सूबेण महाराज के दर्शन किये, यथायोग्य भेंट दी और निम्न प्रकार समाचार कहा उसने कहा कि आपके घर में जो अत्यन्त प्रसिद्ध नर्तकीरूपी महारत्न है, उसे प्रापका भाई विन्ध्यशक्ति देखना चाहता है । हे राजन् ! इसी प्रयोजन को लेकर मैं यहां भेजा गया हूं। आप भी उस नृत्यकारिणी को भेज दीजिये। मैं उसे वापिस लाकर प्रापको सौप दूगा दूत के ऐसे बचन सुनकर सुवेण क्रोध से अत्यन्त कांपने लगा और कहने लगा कि जा. जा, नहीं सुनने योग्य तथा अहंकार से भरे हुए इन वचनों से क्या लाभ है? इस प्रकार सुबेण ने खोटे शब्दों द्वारा दूत को बहुत भारी भर्त्सना की । दूत ने वापिस पाकर यह सब समाचार राजा विन्ध्यशक्ति से कह दिए। दूत के बचन सुनकर वह भी बहन भारी क्रोधरूपी ग्रह से प्राविष्ट हो गया-अत्यन्त कुपित हो गया और कहने लगा कि रहने दो, क्या दोष है ? तदनन्तर मंत्रियो के साथ उसने कुछ गुप्त विचार किया।
कट यद्ध करने में चतूर, श्रेष्ठ योद्धाओं के प्रागे चलने वाला और शूरवीर वह राजा अपनी सेना लेकर शीघ्र ही चला। विन्ध्यशक्ति ने युद्ध में राजा सुवेण को पराजित किया और उसकी कीति के समान नत्यकारिणी को जबरदस्ती छीन लिया सो ठीक ही है क्योंकि पुण्य के चले आने पर कौन किस की क्या वस्तु नहीं हर लेता ? जिस प्रकार दांत टूट जान हाथी की महिमा को छिपा लेता है, और दाढ़ का टूट जाना सिंह की महिमा को तिरोहित कर देता है उसी प्रकार पराजय मानभंग राजा की महिमा को छिपा देता है । उस मान भंग से राजा सुवेण का दिल टूट गया अतः जिस प्रकार पीठ टूट जाने से सर्प एक पद भी नहीं चल पाता उसी प्रकार वह भी अपने स्थान से एक पद भी नहीं चल सका। किसी एक दिन उसने विरक्त होकर धर्म के स्वरूप को जानने वाले गृह-त्यागी सुवत जिनेन्द्र से धर्मोपदेश सुना और निर्मल चित्त से इस प्रकार विचार किया कि बदमारे किसी पाप का ही उदय था जिससे विन्ध्यशक्ति ने मुझे हरा दिया। ऐसा विचार कर उसने पाप-रूपी शत्र को नष्ट करने की इच्छा की और उन्हीं जिनेन्द्र से दीक्षा ले ली । बहुत दिन तक तपरूपी अग्नि के संताप से उसका शरीर कृश हो गया था। अन्त में शत्रु पर क्रोध रखता हुमा वह निदान बन्ध सहित सन्यास धारण कर प्राणत स्वर्ग के अनुपम नामक विमान में बीस सागर की प्रायवाला तथा पाठ ऋद्धियों से सहित देव हमा।
अथानन्तर इसी भरत क्षेत्र के महापुर नगर में श्रीमान् वायुरथ नाम का राजा रहता था। चिरकाल तक राज्यलक्ष्मी का उपभोग कर उसने सुव्रत नामक जिनेन्द्र के पास धर्म का उपदेश सुना, तत्व-ज्ञानी बह पहले से ही. था अतः विरक्त होकर
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