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धरनाम नामक पुत्र को राज्य देकर तप के लिये चला गया। समस्त शत्रुओं का अध्ययन कर तथा उत्कृष्ट रूप कर यह उसी प्राणत स्वर्ग के प्रमुत्तर नामक विमान में इन्द्र हुआ। वहां से चय कर इसी भरत क्षेत्र की द्वारावती नगरी के राजा ब्रह्म के घर उनकी रानी सुभद्रा के पलस्तोक नाम का पुत्र हुआ तथा सुर्वण का जीव भी वहां से चय कर उसी महा राजा की दूसरी रानी उषा के द्विपृष्ठ नाम का पुत्र हुआ। उस द्विपृष्ठ का शरीर सत्तर धनुष ऊंचा था और आयु बहत्तर लाख वर्ष की थी। इस प्रकार इक्ष्वाकु वंश का अग्रसर वह विषष्ठ राजाओं के उत्कृष्ट भोगों का उपभोग करता था।
कुन्द पुष्प तथा इन्द्रनीलमणि के समान कान्ति वाले वे बलभद्र और नारायण जब परस्पर में मिलते थे तब गंगा और यमुना के प्रवाह के समान जान पड़ते थे। जिस प्रकार समान दो धावक गुरु के द्वारा दी हुई सरस्वती का बिना विभाग किये ही उपभोग करते हैं उसी प्रकार पुण्य के स्वामी वे दोनों भाई विना विभाग किये ही पृथ्वी का उपभोग करते थे । समस्त शास्त्रों का अध्ययन करने वाले उन दोनों भाइयों में प्रभेद था --- किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था सो ठीक ही है क्योंकि उसी अभेद की प्रशंसा होती है जो कि लक्ष्मी और स्त्री का संयोग होने पर भी बना रहता है । वे दोनों स्थिर थे, बहुत ही ऊंचे थे, तथा सफेद, और नीले रंग के थे इसलिए ऐसे मच्छे जान पढ़ते थे मानों कंसास और पंजनगिरि ही एक जगह था मिले हों।
इमर राजा विन्ध्यति घटी यंत्र के समान चिरकाल तक संसार-सागर में भ्रमण करता रहा। अन्त में जब थोड़े
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से पुण्य के साधन प्राप्त हुए तब इसी भरतक्षेत्र के भोगवर्धन नगर के राजा श्रीधर के सर्व प्रसिद्ध तारक नाम का पुत्र हुआ। अपने चक्र के आक्रमण सम्बन्ध भय से जिसने समस्त विद्यावर तथा भूमि-पोर्चारियों को अपना दास बना लिया है ऐसा वह तारक प्राधे भरत क्षेत्र में रहने वालो देदीप्यमान लक्ष्मा को धारण कर रहा था। अन्य जगह को बात रहने दीजिए, मैं तो ऐसा मानता हूँ कि उसके डर से सूर्य को प्रभा भी मन्द पड़ गई थी इसलिए लक्ष्मी कमलों में भी कभी प्रसन्न नहीं दिखती थी। जिस प्रकार उम्र राहु पूर्णिमा के चन्द्रमा का विरोधी होता है उसी प्रकार उप प्रकृति वाला तारक भी प्राचीन राजाओं के मार्ग का विरोधी था जिस प्रकार किसी दूर ग्रह के विकार से मेघमाला के गर्भ गिर जाते हैं उसी प्रकार तारक का नाम लेते ही भय उत्पन्न होने से गर्भिणी स्त्रियों के गर्भ गिर जाते थे। स्वाहो के समान श्याम वर्ग वाला वह तारक सदा शत्रुओं का ढूढ़ता रहता था और जब किसी शत्रु को नहीं पाता था तब ऐसा जान पड़ता था मानो अपने प्रतापरूपी अग्नि के धुएं सही काला पड़ गया हो ।
जिसने समस्त अवियों को संतप्त कर रखा है और जो ग्रीष्म ऋतु के सूर्य के समान दुःख से सहन करने योग्य है ऐसा वह तारक अन्त में पतन के सम्मुख हुआ सो ठोक ही है क्योंकि ऐसे लोगों की लक्ष्मी क्या स्थिर रह सकती है ? जो खण्ड तीन खण्डों का स्वामित्व धारण करता था ऐसा तारक जन्मान्तर से श्राये हुए तीव्र विरोध से प्रेरित होकर द्विपृष्ठ नारायण और सचल वलभद्र की वृद्धि को नहीं सह सका। वह सोचने लगा कि मैंने समस्त राजाओं और किसानों को कर देने वाला बना लिया है परन्तु ये दोनों भाई ब्राह्मण के समान कर नहीं देते। इतना ही नहीं, दुष्ट गर्व से युक्त भी हैं। अपने घर में बढ़ते हुए पुष्ट सांप को कौन सहन करेगा ? ये दोनों ही मेरे द्वारा नष्ट किये जाने योग्य शत्रुओं की श्रेणी में स्थित हैं तथा अपने स्वभाव से दूषित भी है जिस किसी तरह दोष लगाकर इन्हें अवश्य ही नष्ट करूंगा इस प्रकार उपाय का विचार कर उसने दुर्वचन कहने वाला एक कलह-प्रमी दूत भेजा और वह दुष्ट दूत भी सहसा उन दोनों भाइयों के पास जाकर इस प्रकार कहने लगा कि शत्रुओं को मारने वाले तारक महाराज ने भाशा दी है कि तुम्हारे घर में जो एक बड़ा भारी प्रसिद्ध हस्ती है वह हमारे लिए शीघ्र ही भेजो अन्यथा तुम दोनों के शिर सण्डित कर अपनी बिजयी सेना के द्वारा उस हाथी को जबरदस्ती नंगा मूंगा ।
प्रयोग्य वचन सुनकर पर्वत के समान
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इस प्रकार उस कलहकारी द्रुत के द्वारा कहे हुए असभ्य तथा सहन करने के अचल, उदार तथा धीरोदात्त प्रकृति के धारक अचल बलभद्र इस तरह कहने लगे कि हाथी क्या चीज है ? तारक महाराज ही अपनी सेना के साथ शीघ्र घायें हम उनके लिए वह हाथी तथा अन्य वस्तुएं देये जिससे कि वे स्वस्थता-कुना (पक्ष में स्वः स्वर्ग तिष्ठतीति स्वस्थः 'शरि खरि विसलोपो वा वक्तव्यः' इति वार्तिके न सकारस्य लोप: । स्वस्थस्य भावः
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