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गुणस्थान के पूर्व में नष्ट किया । पुनः ग्रप्रत्याख्यानावरण, क्रोध, मान, माया लोभ ग्रष्ट कषायों को दूसरे अंश में नष्ट किया और नपुंसकलिंग, स्त्रीलिंग, हास्य, रति, परति शोक, भय, जुगुप्सा, पुलिंग, संजन, फोध, मान, माया समस्त प्रकृतियां नष्ट की। सज्वलन लोभ प्रकृति सूक्ष्म सांपराय दशव गुण स्थान के उपांत्य में निद्रा प्रचला विनष्ट हुई और इसी गुण स्थान के प्रत में पांचों ज्ञानावरण, चारों दर्शनावरण और पांचों अन्तराय कर्म नष्ट किये। उक्त तिरसठ प्रकृतियों को नष्ट कर गौतम मुनिराज केवल ज्ञान प्राप्त कर तेरहवें गुण स्थान हुए। उन्होंने अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य प्राप्त किये। उनके लिए देवों ने गन्ध कुटी की रचना की। जिसमें केवली भगवान विराजमान हुए । उन्हें इन्द्रादि देव भक्ति पूर्वक नमस्कार करने लगे । समस्त गणधर मुनिराज और राजाओं ने गौतम स्वामी की भक्तिपूर्वक पूजा की ओर नमस्कार कर अपने-अपने स्थान पर बैठे जिन्होंने लोक सहित दोनों लोकों को देखा है, जिनका विपय समुदाय नष्ट हो चुका है, जो लीला पूर्वक कामदेव को नष्ट कर ब्राह्मण वंश को सुशोभित करने के लिए मणि के तुल्य हैं, वे केवल ज्ञानी भगवान गीतम स्वामी मोक्ष प्रदान करने वाला भव्य ज्ञान देते रहें ।
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पंचम अधिकार
इसके पश्चात् भगवान गौतम स्वामी भव्य जीवों को आत्म-ज्ञान प्रदान करने वाली सरस्वती को प्रकट करने लगे । उनकी दिव्य ध्वनि में प्रकट हुआ कि भगवान जिनेन्द्र देव ने जीव, ग्रजीव ग्रास्रव, बंध संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सप्ततत्व निरूपित किये हैं जो मन्तरंग घर बहिरंग प्राणों से पूर्वभव में जीवित रहेगा, यह जीव हैं यह अनादिकाल से स्वयं सिद्ध है यह जीव भव्य मोर भव्य अर्थात् संसार और सिद्ध भेद से अथवा सेनानी भेद से दो प्रकार का होता है। बस और स्थावर भेव से दो प्रकार का होता है उनमें पृथ्वीका विक, जलकाविक, अग्निकायिक, वायुकाविक, वनस्पतिकायिक, पंच स्थावरों के भेद हैं तथा दो इन्द्रिय तेदद्रिव चौइन्द्रिय पंचेन्द्रिय चार बसों के भेद हैं स्पर्धन, रसना, घाण, चक्षु, कर्ण ये पंचइन्द्रियां हैं एवं स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द युक्त इन्द्रियों के विषय हैं । शंखावर्त पद्मपत्र और वंशपत्र ये तीन प्रकार की योनियां होती हैं या योनि में गर्भधारण की शक्ति नहीं होती। पद्मपत्र योनि से तीर्थकर चक्रवर्ती नारायण प्रति नारायण बलभद्र आदि महापुरुष और साधारण अन्न होते है, किन्तु दान से साधारण मनुष्य ही उत्पन्न होते हैं। पुरुष उत्पन्न वंशपत्र जीवों के जन्म तीन प्रकार में होते हैं-संमूर्च्छन, गर्म और उपाद एवं सचित प्रचित सविताचित, शीत, उष्ण, शीतोष्ण संवृत, निवृत संवृत निवृत ये नव प्रकार की योनियां हैं। उत्पन्न होते ही जिन पर जरा प्राती है वे जरायुज और जिन पर जरा नहीं माटी के पंड और गोत से गर्भ से उत्पन्न होते हैं इतर राव जीव संमूर्च्छन उत्पन्न होते हैं। योनियों के ये तव भेद जिनागम में संक्षेप से बताये गये हैं, धन्यथा यदि विस्तारपूर्वक क जांग तो चौरासी लाख होते हैं। नित्य निगोद, इत्तर निगोद, पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक इनको सातु खात लाख योनियां हैं। इन योनियों में जीव सदा परिभ्रमण किया करता है। वनस्पति जीवों की दश लाख योनियां हैं। दो इन्द्रिय, इन्द्रिय श्रीइन्द्रि इनकी दो-दो लाख योनियां हैं। जिनमें ये जीव जन्म मृत्यु के दुःख भोगा करते हैं। चार लाख योनियां हैं, जिनमें ये जीव जन्म मृत्यु के दुःख भोगा करते हैं। चार लाख योनियां नारकीयों की है जो पोषण के दुःख भोगती हैं ये शारीरिक, मानसिक घोर असुर कुमार तथा देवों के दिये हुए पांच प्रकार के दुख भोगती हैं। चार लाख योनियों की हैं वे मारन चैन आदि के कष्ट भोगती हैं चौदह लाख योनियां मनुष्यों की हैं, वे इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग के कष्ट झेलती हैं। इसके अतिरिक्त देवों की हैं । वे इष्ट वियोग और अनिष्ट सयोग के कष्ट झेलती हैं। इनके अतिरिक्त देवों के चार लाख योनियां हैं वे भी मानसिक दुःख भोगने के लिए बाध्य है। वर्षात् हे राजन् संसार में कहीं भी सुख नहीं है। गर्भ से उत्पन्न होने वाले स्त्री, पुरुष, स्त्रीलिंग पुलिंग और पुखक लिंग के धारण करने वाले होते हैं पर वे दो लिंगों को अर्थात् स्त्रीलिंग और पुलिंग को हो धारण करने वाले होते हैं एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, चौइन्द्रिय सम्मूर्छन पंचेन्द्रिय तथा नारकी वे सब नपुन्सक ही होते हैं। एकेन्द्रिय आदि के अनेक संस्थान होते हैं, पर नारकीयों का झुंडक संस्थान ही होता है। देव और भोग भूमियों का समचतुरस्त्र संस्थान होता है, पर मनुष्य और तिर्यंचों के छहों संस्थान होते हैं। देव और नारकियों की उत्कृष्ट स्थिति ( सबसे अधिक आयु) तीस
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