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होते पाये हैं। पिछरने सौ वर्षों में सिद्धरय आदि अनेक दिगम्बर मुनि इस पोर हो गुजरे हैं; किन्तु खेद है, उनकी जीवन संबन्धी बार्ता उपलब्ध नहीं है।
महाराष्ट्र देश के विगम्बर जैन मुनि हमारत की शाही महाराष्ट्र देश भी दम का केन्द्र था। वहां अब तक दिगम्बर जैनों की बाहुल्यता है । कोल्हापुर, बेलमाम आदि स्थान जनों की मुख्य बस्तियाँ थीं। कहते हैं एक मरतबा कोल्हापूर में दिगंबर मुनियों का एक बृहत् सह प्राकर ठहरा था। राजा और रानी गे भक्तिपूर्वक उसकी वन्दना की थी। दैवयोग से सङ्ग जहाँ पर ठहरा था बहाँ प्राग लग गई । मूनिगण उनमें भस्म हो गये। राजा को बड़ा पश्चात्ताप हुप्रा। उसने उनके स्मारक में १०८ दि० मन्दिर बनवाये । संघ में १०५ही दिगंबर मुनि थे। इस घटना से महाराष्ट्र में दिगंबर मुनियों की बाहल्यता का पता चलता है । सचमुच महाराष्ट्र के स्टट, चालक्य, शिलाहार आदि वंश के राजा दिगंबर जैन धर्म के पोषक थे और यही कारण है कि वहां दिगंबर मुनियों का बड़ी संख्या में विहार हा या अठारहवीं शताब्दि में हुये दो दिगंबर मुनियों का पता चलता है। मराठी के एक कवि जिनदास के गुरु विद्धान दिगम्बराचार्य श्री उज्जतकीति थे । दुसरे महतिसागर जी थे। उन्होंने स्वतःक्षल्लकवत् दीक्षा ली थी। उपरान्त देवेन्द्र कीति भट्टारक से विधिपूर्वक दीक्षा ग्रहण की थी। वहाड़देश में उन्होंने खुब धर्मप्रभावना की थी। गूजरों को उन्होंने जैनी बबनाया था। दही गांव उनका समाधिस्थान है, जहां सदा मेला लगता है। उनके रचे हुए ग्रन्थ भी मिलते हैं। (मजइ० पृ० ६५-७२)।
शाके ११२७ में कोल्हापुर के ग्रजरिका स्थान में त्रिभुवनतिलक चैत्यालय में श्रीविशालकोति प्राचार्य के श्री सोमदेवाचार्य ने ग्रन्थ रचना की थी।
दक्षिण भारत के प्रसिद्ध वि० जैनाचार्य दिगंबर जैनियों के प्रायः सब ही दिग्गज विद्वान् और आचार्य दक्षिण भारत में ही हुये हैं। उन सबका संक्षिप्त वर्णन उपस्थित करना यहाँ संभव नहीं है, किन्तु उसमें से प्रख्यात दिगंबराचार्यों का वर्णन यहाँ पर दे देना इष्ट है। अङ्ग-ज्ञान के ज्ञाता दिगंबराचार्यों के उपरान्त जनसङ्ग में श्री कुन्दकुन्दाचार्य का नाम प्रसिद्ध है। दिगंबर जैनों में उनको मान्यता विशेष है। वह महातपस्वी और बड़े ज्ञानी थे। दक्षिण भारत के अधिवासी होने पर भी उन्होंने गिरिनार पर्वत पर जाकर श्वेताम्बरों से बाद किया था। तामिल साहित्य का नीतिग्रन्थ कुर्रल उन्हीं की रचना थी। उन और उन्हीं के समान मन्य दिगंबराचार्यों के विषय में प्रो. रामास्वामी ऐयंगर लिखते है:
"First comes Yatindra Kunda, a Great Jain Guru, who in order to show that both within and withont he could tot be assisted by Rajas, moved about leaving a space or four inches between himself and the earth under his feet'. Uma Svami, the compiler of Tattyartha Sutra Griddhrapinchha, and his disciplc Balakapinchha follow. Then comes Samantabhadra, 'ever fortunate', 'whose discourse lights up the palace of the three worlds filled with the all meaning syadvada'. This Samantabhadra was the first of a series of celebrated Digambara writers who abquired considerable predominance, in the early Rashtrakuta period. Jain tradition assigns him Saka 60 or 138 AD.......... He was a great Jaina missionary who tried to spread far and wide Jaina doctrincs and morals and that he met with no opposition from other sects wherever he went. Samantabhadra's appearance in South India marks an epoch not only in the annals of Digambara tradition, but also in the history of Sanskrit liter ture.........After Samantabhadraa large number of Jain Manis took up the work of proselytism. The more important of them have contributed much for the uplift of the Jain world in literature and secular affairs. There was for example, Simhanandi, thc Jain sage, who, according to tradition, founded the state of
१. Jainism Was specially popular in the Southern Maratha country EHI., P. 444
२. प्राजैमा०, प०७६ .. ३. दिर्जा, पृ०७६५
४. SSILL, pp. 40-44889
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