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Gangavadi. Other names are those of Pujyapada, the author of the incomparablegraminar. JineIndra Vyakarana and of Akalanka who, in 788 A.D. in believed to have confuted the Buddhists at the court of Hinasitaia in Kanchi, and thereby procured the expulsion of the Buddhists from South India,' SSIJ., pt. 1 pp. 29-31
भार्थि--. "पहले ही महान नगरु यतीन्द्र कुन्द का नाम मिलता है जो राजाओं के प्रति निस्पृहता दिखाते हये अधर चलते थे। 'तत्वार्थ सूत्र' के कर्ता उमास्वामी गद्धपिच्छ और उनके शिष्य बलाव.पिच्छ जनके बाद पाते हैं। तब समन्तभद्र का नाम दृष्टि पड़ता है जो सदा भाग्यवान रहे और जिनकी स्याद्वाद्वाणी सीन लोक को प्रकाशमान करती थी। यह समन्तभद्र प्रारम्भिक राष्ट्रकट काल के अनेक प्रसिद्ध दिगंबर मुनियों में सर्व प्रथम थे। उनका समय जैनमतानुसार सन् १३८ ई० है। यह महान् जन प्रचारक थे, जिन्होंने चहुँ ओर जैन सिद्धान्त और शिक्षा का प्रचार किया और उन्हें कहीं भी किसी विधर्मी सम्प्रदाय के विरोध को सहन न करना पड़ा। उनका प्रादुर्भाव दक्षिण भारत के दिगम्बर जैन इतिहास के लिये ही युगप्रवर्तक नहीं है, बल्कि उससे संस्कृत साहित्य में एक महान परिवर्तन हुआ था। समन्तभद्र के बाद बहुसंख्यक जैन साधुओं ने अजनों को जैनी बनाने का कार्य किया था । उनमें से प्रसद्धि साधुनों ने जैन संसार वो साहित्य और राष्ट्रीय अपेक्षा उन्नत बनाया था। उदाहरणतः जैनाचार्य सिंहनन्दि में गंगवाड़ी का राज्य स्थापित कराया था। अन्य प्राचार्यों में पूज्यपाद, जिनकी रचना अद्वितीय "जिनेन्द्र व्याकरण" है और प्रकलंक देव हैं जिन्होंने कांची के हिमशीतल राजा के दरबार में बौद्धों को बाद में परास्त करके उन्हें दक्षिण भारत से निकल दिनास।
श्री उमास्वामी श्री कुन्दकुदाचार्य के उपरान्त श्री उमास्वामी प्रसिद्ध प्राचार्य थे, प्रो० साल का यह प्रकट करना निस्सन्देह ठीक है। उनका समय वि० सं०७६ है । गुजरात प्रान्त के गिरिनगर में जब यह मुनिराज विहार कर रहे थे और एक पायक नामक श्रावक के घर पर उसकी अनुपस्थिति में प्राहार लेने गये थे, तब वहां पर एक अमृद्ध सूत्र देखकर उसे शुद्ध कर पाये थे । द्वं पायक ने जब घर पाकर यह देखा तो उसने उमास्वामी से "तत्त्वार्थसूत्र' रचने को प्रार्थना की थी 1 तदनुसार यह ग्रन्थ रचा गया था । उमास्वामी दक्षिण भारत के निवासी और प्राचार्य कुन्द काम्द के शिष्य थे, ऐसा उनके गुद्धपिच्छ' विशेषण से बोध होता है।
श्री समन्तभद्राचार्य श्री समन्तभद्राचार्य दिगम्बर जैनों में बड़े प्रतिभाशाली नयायिक और वादी थे। मुनिदशा में उनको भस्मक रोग हो गया था, जिसके निवारण के लिए वह कांचीपुर के शिवालय में शैव-संन्यासी के भेष में जा रहे थे। वहीं 'स्वयंभ स्तोत्र' रचकर शिवकोटि राजा को आश्चर्यचकित कर दिया था। परिमाणतः वह दिगम्बर मुनि हो गया था। समन्तभद्राचार्य ने सारे भारत में विहार करके दिगंबर जैन धर्म का डंका बजाया था। उन्होंने प्रायश्चित लेकर पुनः मुनिवेष और फिर प्राचार्य पद धारण किया था। उनकी ग्रन्थ रचनाएं जैन धर्म के लिए बड़े महत्व को हैं।
श्री पूज्यपादाचार्य-कर्नाटक देश के कोलंगाल नामक गांव में एक ब्राह्मण माधब भद्र बित्रम की चौथी शताब्दी में रहता था। उन्हीं के भाग्यवान पुत्र श्री पूज्यपादाचार्य थे। उनका दीक्षा नाम श्री देवनन्दि था । नाना देशों में विहार करके उन्होंने धर्मोपदेश दिया था, जिसके प्रभाव से सैकड़ों प्रसिद्ध पुरुष उनके शिष्य हुए थे। गंगवंशी दुविनीत राजा उनका मुख्य शिष्य था । “जैनेन्द्रव्याकरण', "शब्दावतार" प्रादि उनकी श्रेष्ठ रचनाये हैं।
श्री वादीसिंह-यतिवर थी बादीभसिंह श्री पुष्पसेन मुनि के शिष्य थे। उनका ग्रहस्थ दशा का नाम 'अड्यदेव' था, जिससे उनका दक्षिण देशवासी होना स्पष्ट है। उन्होंने सातवीं श० में 'क्षत्रचूडामणि", गद्यचिन्तामणि" श्रादि ग्रन्थों की रचना की थी।
श्री नेमिचन्द्राचार्य-श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवती नन्दिसंघ के स्वामी अभयनन्दी के शिष्य थे । वि० सं० ७३५ में द्रविड़ देश के मथुरा नगर में बह रहते थे । उन्होंने जैन धर्म का विशेष प्रचार किया था और उनके शिष्य गंगवंश के राजा श्री राचमल्ल और सेनापति चामण्डराय आदि थे। उनकी रचनामों में "मोमदसार" ग्रन्थ प्रधान है।
श्री अकलंकाचार्य-श्री अकलंकाचार्य देवसंघ के साथ थे । बौद्ध मठ में रह कर उन्होंने विद्याध्ययन किया था। उपरांत
१. मजद०, पृ० ४४ । ३. Ibid पृ. ४६ ५. Ibid पृ० ४७-४८
२. Ibid. पृ० ४५ । ४. lbidge 3