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तीन ज्ञान हैं नैन विशाल, जाने सकल चराचर जाल । मोह कप जे पर अजान, तिनको कालनहार निदान ।।७४।। तुम अपने उर देखो टोय, शोक महा अघकारी होय । करो धर्म अपने गृह जाय, प्रभु के चरण कमल चित लाय ॥७५।। मुरख शौक बढ़ाये कोय, सो पुन इष्ट विराधी होय । जो उर धर्म धरै अधिकार, सो अनिष्ट घातक गुणधार ॥७६॥
बोहा
यहि प्रकार बच सुन सकल, देवी समझ विवेक । शोक सबै उरतें गयो, ज्यों दीपक तम टेक ||७७॥ घरी धर्म निज हृदय दृढ़, उर संवेगय नाम । बांधव सुजन कुटुम्ब जुत, गई मात जिन धाम ॥७॥
चौपाई
उत्तम वन अति सश्न विचार, फल अरु फूल तहां अधिकार । चन्दन तरु तामै रमणीक, मंडप सम शाखा कर ठीक ।।६।। तिहितर शिला महा छबि धार, चन्द्र कान्ति मन की उनहार । सुरपति पहिल रची मन रंग, शीतल छाह देख सरवंग ।।८।।
तप और योगोंके द्वारा जैसे जैसे निर्जरा की जाती है वैसे वैसे मोक्षलक्ष्मी मुनीश्वरों के समीप पाती जाती है। और जब कर्मों की निर्जरा पूरी हो जाती है तो, योगियों को मोक्ष-लक्ष्मी प्राप्त हो जाती है।
यह निर्जरा सब प्रकार सुख प्रदान करने वाली है। अनन्त गणोंसे युक्त है। सभी तीर्थकर और गणधर इसकी सेवा करते है। यह सब दुःखोंसे अलग है और सबका समान रूपसे हित करने वाली है। इससे संसार नष्ट होता है। इस भांति निर्जरा के गुणों को जानकर संसार से भयभीत भव्यों को तपस्या और कठिन परिषहों को सहन कर बड़े यत्न से मोक्ष प्राप्ति के लिये निर्जरा करना चाहिये।
लोक भावना-जहां पर छह द्रव्य दिखलाई दें, वह लोक है । वह लोक प्रधो मध्य उर्ध्व भागोंसे तीन भेद रूप अकृत्रिम है पीर अविनाशी है । इस लोक के निम्न भाग में सात राजू प्रमाण नरक की सात भूमियां हैं । वे सब अशुभ और दुःख देनेवाली हैं। उनमें ४६ पटल' (खन) हैं और चौरासी लाख रहनेकी बिले हैं।
उनमें पूर्व कृत पापोंके फल स्वरूप मिथ्यात्वी जीव नरक प्राप्त कर जन्म ग्रहण करते हैं। वहां पर उन्हें बड़ा कष्ट होता है। वे तरह तरह से पीटे सताये और सूली पर चढ़ाये जाते हैं। यह अधोलोक का कथन है।
मध्यलोक में जम्बूद्वीप आदि को लेकर द्वीप और लवण समुद्र असंख्यात हैं। पांच सुमेरु हैं, तीस कुल पर्वत हैं। बीस गजदन्त हैं एकसौ अस्सी वक्षार पर्वत हैं, चार इष्वाकार पर्वत हैं, दश कुरुवृक्ष मानुषोत्तर पर्वतके समान ऊचे हैं, ये ढ़ाई द्वीपमें हैं और जन मन्दिरोंसे सुशोभित हैं । एकसौ सत्तर वड़े बड़े देश और नगर है। मोक्ष देनेवाली पंद्रह कर्म-भूमियां हैं । महा नदियां तलाब कुण्ड आदिकी संख्या अन्य शास्त्रोंसे जानी जा सकती हैं। श्री आदि छह देवियां छह हुदों पर रहती हैं। पाठवें नन्दीश्वर द्वीपोंमें अंजनगिरिके ऊपर बावन जैन मन्दिर हैं। उन्हें मैं सर्वदा नमस्कार करता हूं।
__ चन्द्र सूर्य ग्रह तारे नक्षत्र ये असंख्यात ज्योतिषी देव मध्य लोकमें है, इनके सब विमानों के मध्य सुवर्ण रत्नमयी प्रकृत्रिम जिन मंदिर हैं, जिन्हें मैं नमस्कार करता है। इस मध्यलोक के ऊपर सातराज प्रमाण उध्वं लोक में सोधम आदि सोलह कल्प स्वर्ग हैं। उनके ऊपर नैवेयक नव अनुदिश पांच अनुत्तर में कल्पातीत स्वर्ग हैं। इनके बिमानों के अंसठ पटल (खन) हैं। इनके विमानों की संख्या चौरासी लाख सत्तानवे हजार तेरह हैं। ये स्वर्ग विमान सब इन्द्रिय सुखों को देनेवाले हैं। जो जीव पूर्वजन्म में विद्वान तप रत्नत्रय से विभूषित धार्मिक महत और निग्रंथ गुरू के भक्त, जितेन्द्री धेष्ठ प्राचरण वाले हैं। ऐसे जीव ही देव गति को प्राप्त हो स्वर्गमें जन्म धारण करते हैं। वहां उन्हें इन्द्रियजन्य सुख उपलब्ध होते हैं । स्वर्ग के अग्रभाग में रत्नमयी मोक्ष-शिला है। वह मनुष्य क्षेत्रके सदृश पैतालिस लाख योजन की है और बारह योजन मोटी है।।
उस शिलापर सिद्ध भगवान आसीन हैं। वे अनन्त सुख में लीन अनन्त हैं। उन्हें मैं नमस्कार करता हूं। इस प्रकार इन्द्रिय सुख दुःखवाले तीनलोक के स्वरूपको जानकर अग्रभागमें जो मोक्ष स्थान है, उसे रत्नत्रय तपस्या द्वारा केबल प्राप्त करने का प्रयत्न करो। मोक्ष अनन्त सुखोंसे परिपूर्ण है। बोधिदुर्लभ भावना-चारों गतियों में सर्वदा भटकते रहने औरे कर्मबंध करते हुए जीवोंको बोधिदुर्लभ होना अत्यंत कठिन
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