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कोई प्रभु वैराग्य विचार, अपने जिय हित धरै समार । दिन संवेग सफल नहीं काय, जीवी सकल अकारथ जाय ॥६॥ कोई श्रावक नत दृढ़ कर, ग्यारा प्रतिमा अन्तर घरं । पंच करम मुरु हिरदै जाप, दूर होहि भव भव के पाप ||६२।। इहि विधि सब नर करें प्रमान, सुर पर असुर भक्ति उन्मान । तिहि अवसर पुरजन सो आय, मात पिता परिजन समुदाय ।।६३।। पुत्र विछोह ताप अधिकाय, तन मन वेलि गई मुरझाय । रुदण कर वहु व्याकुल होय, दुख विलाप जुत विह्वल सोय ॥६४।। पुत्र पुत्र कर रटै अपार, हाहाकार करें मन हार । कब देस्यों इन नैननि तोहि, कब तनको दुख नास मोहि ॥६५।। तुम बिन को यह बाजो चई, तुम बिन माय माय को रई । तुम बिन नरपति मुरपति पाय, काकी नवे शोस भुविलाय ॥६६॥ तुम प्रति कामल बालकुमार, तप जैसे खाडेको धार । धार परियह है बाईस सो उपसर्ग अनेक सरीस ॥६७।। पंचेन्द्रिय दुर्धर मातंग, तीन लोक बिजयो सरकंग । अरु कषाय है अति बड़वीर, किहि विधि जीत सको सुत धीर ॥६|| कसे एकाकी वन माह, गिरि कंदर निबसौ सुत काहि । यह प्रकार बहु कराह बिलाप, तब बाल सुरपात निज श्राप ।।६६॥ भो देवी उर घोरज प्रान, मेरे वचर सुनो निज कान । तुम सुत तीन जगत भरतार, अद्भुत विक्रम को नहि पार ॥७०।। भवसार दुख पूरब सहै, ताके भेद वरण सब कहे । यह विचार इन बाल कुबार, दीक्षा उर धारी अविकार ॥७॥ पाप तरै अरु तार ओर, तीन लोक पति हैं शिरमोर । निर्भय यथा सिंह बन रहै, पुरजन जाको सीमन गई । देवी तम सूत जग गुरु सार, मोहादिक बंधन निरवार । भव दधि तारन तरन महेश, किम गह रमै मुख्य तहलेश ।।७३।।
सिद्धि करनी चाहिये । बुद्धिमानों को चाहिए कि, वे दर्शन, ज्ञान तपरूपा जल से अपवित्र दह के कर्ममल को धोकर अपनी प्रात्मा को पवित्र करलें।
आस्रव भावना-जिस रागी प्रात्मामें रागादि भावों से पुद्गलों का समूह कर्म रूप होकर यावे, वह कमों का पानाही यासव है। वह अनन्त दु:खों का प्रदाता है । जिस प्रकार छिद्र युक्त जहाज में जल आने से वह समुद्र में डूब जाता है, ठीक उसी प्रकार यह जीव भी कर्मों के आने से संसार-सागर में डूबता उतराता रहता है। उस पास्रव के निम्न कारण हैं--खोटंमतों से उत्पन्न पाँच प्रकार के मिथ्यात्व, बारह प्रकारको अविरति, पन्द्रह प्रमाद पापको खानि पच्चीस कषायें और पन्द्रह योग। ये टाल कारण बड़ी कठिनाई से दूर होते हैं । अतएव मोक्ष की आकांक्षा रखनेवाले जीवों को चाहिए कि वे सम्यक चारित्र और तपाही खडग से कर्मास्रव के कारण रूपी शत्रुओं को नष्ट कर दें। जो प्राणी कर्मों के पानेवाले दरवाजे को ज्ञानादि से नहीं रोक सकते उन्हें कठिन तप करने पर भी मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती।
किन्त जिन्होंने ध्यान शास्त्राध्ययन और संयमादि से कर्मों का पाना बिल्कुल रोक दिया है, उनका मना-वाछित मोक्षसपी कार्य सिद्ध हो चका । जब तक योगों से चंचल आत्मा के कमां का आगमन है, तब तक मोक्ष प्राप्त होना दुष्कर है। इस सम्बन्धसे तो संसारको परिपाटी बढ़ती जातो है। ऐसा जानकर अशुभ प्रासवों को रोक रत्नत्रयादि के गम ध्यान से अपने प्रात्मा के स्वरूप को प्राप्ति कर निर्विकल्प मुद्ध ध्यान से कासव का एकदम रोक देना चाहिये।
संबर भावना-जहां मनीश्वर योग, प्रतःगुप्ति प्रादि से कर्मास्रव के द्वारों को रोकते हैं-वही रोकना मोक्ष प्रदान करने बालासंबर है। कर्मास्त्रव रोकनेके इतने कारणों को मुनीश्वर प्रयत्न पूर्वक सेवन करें। वे ये हैं-तेरह प्रकारका चरित्र, दश प्रकार का धर्म, बारह भावना, बाइस परिषहोंका जीतना, निर्मल सामायिक, पांच तरह का चरित्र, धर्म का शुल्क रूप शुभध्यान और उत्तम ज्ञानाभ्यास । ये कर्मासबोंके लिये उत्तम कारण हैं। जिन मूनीश्वर के प्रतिदिन कर्मोका संवर और निर्जरा होती है, उनके उत्तम गण स्वत: प्रकट हो जाते हैं । वे देह का कष्ट सहन करते हुए भी पाप कर्मों का संबर करते रहते हैं, पून्य कर्मोका नहीं। इस प्रकार संबर के गणों को जानकर मोक्षाभिलाषी जोवों को सदा सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्र और श्रेष्ठ योगों के द्वारा सब प्रकार का संवर करते रहना चाहिये ।
निर्जरानप्रेक्षा-पूर्व कर्मको तपस्या के द्वारा क्षय करना ऐसो मविपाक निर्जरा योगियों को ही हुआ करती है | जो जीवों के स्वभाव से ही कर्म उदय होने पर निर्जरा होतो है, वह सविपाक निर्जरा है। उसे त्याग देना चाहिये । कारण इससे नवीन कर्म उदय होते हैं।