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तहां फर इन्द्राणी माय, पंच वरन शुभ रतन मंगाय । निज कर चटकी चरत जाय, नाना विधिको चोक पुराय ।।८।। केतु माल बांधी समुदाय, किय विचित्र मंडप घंट छाय । ख धप हरण मन लाय, रही धूप दसहं दिशि छाय ।।।। उतरे शिला वीर जिन राय, आरुढ़े समचित उर ल्याय । शरीरादि ममता मन तजी, मोख पंथ साधकता भजी ॥३॥ परिग्रह तज चौबीस असार, बाहिज भीतर दोय प्रकार । क्षेत्र ग्रन्थ पहली तज एह, खेतीको उपदेश न देह ॥५४॥ वस्तु परिग्रह दूजो यही, गृह प्रस्थाप सु रहिही नही । तृतिय हिरण्य परिग्रह जोड़, रूपी तामी कांसो छोड़ ॥५ तुर्य सुवर्ण परिग्रह भाख, सोनो रतन न किंचित रास्त्र । पंचम धन परिग्रह को नाम, गो महिषी गज वाजि विराम ॥६॥ धान्य परिग्रह छठमौं भेद, सकल अन्न संग्रह नि:खेद । दासि दास सेवक निज नार, सातम परिग्रह यह निवार ||७|| कुप्य परिग्रह अष्टम भज, सूत रोम पद बस्तर तर्ज । नवम प्रमाण परिग्रह जोय, सकल वस्तु की संख्या होय ॥८८।।
है। प्रथम तो उन चार गतियोंमें मनुष्य गति ही कठिन है, द्वितीय आर्य-क्षेत्र, उत्तमकुल, दीर्घायु पंचेन्द्रियकी पूर्णता निर्मल वृद्धि, मन्द कषाय का होना, मिथ्यात्व की कमी बिनयादि श्रेष्ठ गुण, इन सबकी उत्तरोत्तर प्राप्ति होना और भी कठिन है। पर इससे भी कठिन देव, गरु शास्त्ररूपी सामग्री का मिलना भी दुष्कर है। और सम्यग्दर्शन की शुद्धि ज्ञान चारित्र निर्दोष तप तो इससे भी कठिन हैं।
जिस बुद्धिमान ने उक्त सामग्रियों को प्राप्तकर मोह की परिसमाप्ति के बाद मोक्ष की सिद्धि प्राप्त की है, उन्हीं महान परयों ने बोभि भेटतान को सफल किया। किन्तु भेद विज्ञानको प्राप्ति होने पर भी जो मोक्ष की सिद्धि में प्रमाद करते हैं. वे मानों जहाज की शरण न ले संसार-समुद्र में डूबते उतराते रहते हैं। इस प्रकार विचार कर श्रेष्ठ पुरुषों को समाधि मरण में तथा मोक्ष साधन में विशेष प्रयत्न करते रहना चाहिये।
धर्मानप्रक्षा-उत्तम धर्म उसे कहते हैं, जो संसार-सागर में डूबते हुए जीवों को पकड़कर महतादि पद में अथवा मोक्ष के स्थानमें रखे । उस धर्मके दश लक्षण हैं-उत्तम क्षमा, मार्दव, प्रार्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, अकिंचन, ब्रह्मचर्य । धर्मको चाह रखने वालोंके लिये इनका पालन करना अनिवार्य है। कारण यह है कि इससे खोटे कर्म नष्ट होते हैं और मोक्षका मार्ग प्रशस्त हो जाता है। इसी प्रकार रत्नत्रय के पालन से, मूलगुण उत्तर गुणों के धारण करने से और तपस्या से मोक्ष सुख प्राप्त करने वाला यतियों का धर्म पालन किया जाता है। धर्म के प्रभाव से तीनों लोक की दुर्लभ बस्तुय स्वतः प्राप्त हो जाती हैं। धर्मरूप मंत्र द्वारा खींची गयी मोक्ष-स्त्री स्वतः प्रालिंगन करती है।
संसार में जितनी भी दुष्प्राप्य वस्तुए हैं, वे सब धर्म के प्रसाद मे अनायास प्राप्त होती हैं । धर्म ही माता-पिता तथा साथ साथ चलने वाला हित करने वाला है। वह कल्पवक्ष, चिन्तामणि और रत्नों का खजाना है। वे पुरुष इस संसार से धन्य हैं जो सारा प्रमाद का परित्याग कर धर्मका पालन करते हैं और उन्हींकी संसार में पूजाहोती है। किन्तु जो पुरुष धर्म के अभाव में ममय व्यतीत करते हैं, वे पशुके सदश हैं। ऐसा समझकर बुद्धिमान धर्मके बिना एक क्षण का समय भी व्यर्थ न जाने दें। क्योंकि, उस आयु का कोई ठिकाना नहीं।
भव्य पुरुषों को उपरोक्त भावनायों को चित्त में धारण करना चाहिये । ये भावनायें सर्वथा विकार रहित हैं तीन बैराग्य का कारण हैं, समस्त गणों की राशि हैं, पाप रागादि से रहित है और जैन मुनि जिनकी (भावनाओंको) सेवा किया करते हैं। ये भावनायें निर्मल है, मोक्ष लक्ष्मी की माता हैं, अनन्त गुणों की खानि है और संसार का त्याग कराने वाली हैं । जो मुनीश्वर इन भावनाओं का प्रति दिन चितवन करते हैं, उन्हें स्वर्ग मोक्षादि की संपदा प्राप्त होना क्या कठिन है ? जिन महावीर प्रभुने पुण्य के उदय से सेव-संपदा का उपभोगकर, जगद्गरु तीर्थकर हो, कुमार अवस्था में ही कर्मोवो नष्ट किया तथा जिन्हें मोक्ष प्राप्त करनेवाले, देह-और भोगोंसे परम वैराग्य उत्पन्न हुया, उन्हें मैं दीक्षा-प्राप्तिके लिए स्तुति एवं शतशः नमस्कार करता हूं।
परम तपस्वी वीररथ, मोक्ष-मार्गमें लीन । नमस्कार अर्हन्तको करता है यह दोन ।। जवानों में श्रेष्ठ, महान तपस्वी, मोक्षके मुख में लीन, कामरूपी सुख से विरक्त ऐसे श्री प्रभुको मैं सादर नमस्कार करता हूं।
पाना
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