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यजुर्वेद में भगवान महावीर की उपासना
प्रातिथ्यं रूपं मासरं महावीरस्य नग्नहुः रूपपदमेतत्र रात्रीः सुरासुता ।। १४ ।।
- युजवेंद अ० १६। मंत्र १४
अर्थात् प्रतिथि स्वरूप पूज्य मासोपवासी नग्न स्वरूप महावीर की उपासना करो जिससे संयम, विपर्यय, श्रनध्यव साय रूप तीन प्रज्ञान श्रौर धन मद, शरीर मद, विद्या मद की उत्पत्ति नहीं होती ।
श्रीमद्भागवत पुराण में जैन तीर्थकर को नमस्कार
नारसा वृषभ आससु देव सूनुर्योर्विवचार समदृग् जड़ योगचर्याम् । यत्पारमहंस्यमृषयः पदमामनति स्वस्थः प्रशांतकरणः परिमुक्त संग ॥ १०॥
- भागवत, स्कंध २, ०७
अर्थात् — ऋषभ अवतार कहे हैं कि ईश्वर श्रगनीन्ध्र के पुत्र नाभि से सुदेवी पुत्र ऋषभ देव जी हुए समान दृष्टा जड़ की तरह योगाभ्यास करते रहे, जिनके पारमहंस्य पद को ऋषियों ने नमस्कार किया, स्वस्थ शांत इन्द्रिय सब संग त्याग कर ऋषभदेव जी हुए, जिनसे जैन धर्म प्रगट हुआ ।
श्री ऋषभ देव से किसी और महापुरुष का भ्रम न हो सके इसीलिए ग्रन्थ के स्कन्ध ५ के अध्याय ५ में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि श्री ऋषभ देव जी राजपाट को त्याग कर 'नग्नदिगम्बर" हो गये थे और वे अर्हन्त देव होकर परम अहिंसा धर्म का उपदेश देकर मोक्ष गये ।
उपनिषद् में नग्न दिगम्बर त्यागियों के गुण
"यथाजात रूप धरो निर्ग्रन्थो निष्परिग्रहस्तद् ब्रह्मा मार्ग सम्यक् सम्पन्नः शुद्धमानसः प्राणसधारणार्थ यथोक्त कौले विमुक्तो भैक्षमाचरन्नुदरपात्रेण लाभालाभयोः समो भूत्वा शून्यागार देवगृह तृणकूट वल्मीक वृक्षमूल कुलाशालाग्निहोत्र गृह नदी पुलिन गिरि कुहर कंदर कोटर निर्जन स्थडिलेषु तेष्वनिकेत वास्य प्रयत्नो निर्ममः शुक्ल ध्यान परायणो ध्यात्मनिष्ठो शुभकर्म निर्मलन परः संन्यासेन देह त्यागं करोति स परमहंसो नाम परमहंसो नामेति ॥ "
--- श्रष्टा त्रिशयोपनिषध ( जावालोपनिषध ) पृष्ठ २६०-२६१
श्रर्थात् जो "नग्नरूप" धारण रखने वाले अन्तरंग और बहिरंग परिग्रहों के त्यागी, शुद्ध मन वाले विशुद्धात्मीय मार्ग में ठहरे हुए, लाभ और लाभ में समान बुद्धि रखने वाले, हर प्राणी की रक्षा करने वाले, मन्दिर पर्वत की गुफा दरियाओं के किनारे और एकान्त स्थान पर शुक्ल ध्यान में तत्पर रहने वाले श्रात्मा में लीन होकर अशुभ कर्मों का नाश करके संन्यास सहित शरीर का त्याग करने वाले हैं वे परमहंस कहलाते हैं ।
विष्णु पुराण में जैन धर्म की प्रशंसा
कुरुध्वं मम वाक्यानि यदि मुक्तिममीप्सथ । श्रध्वं धर्ममेतंच मुक्ति द्वारमसवृतम् ॥५॥ धर्मोविमुक्तो रहय नै तस्मादपरोवरः ।
वावस्थिताः स्वर्गं विमुक्तिदागमिष्यथ ||६| श्रध्वं धर्ममे तच सर्व यूयं महावला । एवं प्रकारैवहुभिर्युक्तिदर्शनच चितैः ॥७॥
- विष्णु पुराण, तृतीयांश, अध्याय १७
अर्थात् - यदि आप मोक्ष सुख के अभिलाषी हैं तो अत मत (जैन धर्म) को धारण कीजिये, यही मुक्ति का खुला दरवाजा है। इस जैन धर्म से बढ़कर स्वर्ग और मोक्ष का देने वाला और कोई दूसरा धर्म नहीं है।
८.१५