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सन् १०८८ में दिगम्बर मुनियो के सघ का परिचायक है। यह लेख महाराज बिक्रमसिंह कछवाहा का लिखाया हुया है, जिसने श्रावक ऋषि को श्रेष्ठीपद प्रदान किया था और जो अपने भुजबिक्रम के लिए प्रसिद्ध था। इस राजा ने दुबकुण्ड के जैनमन्दिर के लिए दान दिया था और दिगम्बर मुनियों का सम्मान किया था। ये दिगम्बर मुनिगण श्रीलाटवागट गण के थे और इनके नाम क्रमशः (१) देवसेन (२) कुलभूषण (३) थीदुर्लभसेन (४) शांतिसेन और (५) विजयकीति थे । इनमें श्री देवसेनाचार्य प्रथरचना के लिए प्रसिद्ध ये और श्रीशांतिसेन अपनी वादकला से विपक्षियों का मद चूर्ण करते थे।
खजराहा के लेखों में वि० मुनि खजराहा के जैन मन्दिर में एक लेख संवत् १०११ का है। उससे दिगम्बर मुनि श्री वासवचन्द्र (महाराज गुरु श्री वासवचन्द्रः) का पता चलता है। वह धांगराजा द्वारा मान्य सरदार पाहिल के गुरु थे।
झालरापाटन में दि० मुनियों की निषिधिकार्य झालरापाटन शहर के निकट एक पहाड़ी पर दिगम्बर मुनियों के कई समाधिस्थान हैं। उन पर के लेखों से प्रगट है कि सं० १०६६ में श्री नेमिदेवाचार्य और थी बलदेवाचार्य ने समाधिमरण किया था।'
अलवर राज्य के लेखों में दि० मुनि अलवर राज्य के नौगमा ग्राम में स्थित दि. जैन मन्दिर में श्री अनन्तनाथ जी की एक कायोत्सर्ग मति है जिनके पासन पर लिखा है कि सं० ११७५ में प्राचार्य विजयकीति के शिष्य नरेन्द्रकीति ने उसकी प्रतिष्ठा को थी।
देवगढ़ (झांसी) के पुरातत्व में दिल मुनि देवगढ़ (झांसी) का पुरातत्त्व वहाँ तेरहवीं शताब्दि तक दिगम्बर मुनियों के उत्काई का द्योतक है। नग्न मूर्तियों से सारा पहाड़ श्रोत प्रोत है। उन पर के लेखों से प्रगट है कि ११वों शताब्दि में वहां एक शुभदेवनाथ नामक प्रसिद्ध मुनि थे। सं० १२०६ के लेख में दिगम्बर गुरुओं को भक्त आयिका धमंधो का उल्लेख है स. १२२४ का शिलालेख पण्डित मुनि का वर्णन करता है। सं० १२०७ में वहां प्राचार्य जयकीर्ति प्रसिद्ध थे। उनके शिष्यों में भावनन्दि मनि तथा कई प्रायिकायें यीं। धर्मनन्दि. कमलदेवाचार्य, नागसेनाचार्य व्याख्याता माघनन्दि, लोकनन्दि और गुणनन्दि नामक दगम्बर मुनियों का भी उल्लेख मिलता है। नं० २२२ को मूर्ति मुनि-यायिका-श्रावक-श्रविका, इस प्रकार चतुर्विधसंघ के लिए बनी थी । गर्ज यह कि देवगढ़ में लगातार कई शताब्दियों तक दिगम्बर मुनियों का दौरदौरा रहा था।
बिजोलिया (मेवाड़) में दिग० साधुनों को मूसियाँ बिजोलिया (पाश्वनाथ–मेवाड़) का पुरातत्व भी वहां पर दिगम्बर मुनियों के उत्कर्ष को प्रगट करता है। वहां पर कई एक दिगम्बर मुनियों की नग्न प्रतिमायें बनी हुई हैं । एक मानस्थम्भ पर तीर्थंकरों की मूर्तियों के साथ दिगम्बर मुनिगण के प्रति विम्व व चरण चिन्ह अंकित हैं । दो मुनिराज शास्त्रस्वाध्याय करते प्रगट किये हैं। उनके पास कमंडल पोछी रक्खे हुए हैं। वे अजमेर के चौहान राजाओं द्वारा मान्य थे । शिलालेखों से प्रगट है कि वहां पर धी मूलसंघ के दिगम्बराचार्य श्री वसन्तकीतिदेव विशालकीत्तिदेव, मदनकी त्तिदेव, धर्मचन्द्रदेव, रत्नकोत्तिदेव, प्रभाचन्द्रदेव, पद्मनन्दिदेव, पोर शुभचन्द्रदेव विद्यमान थे। इनको चौहानरराजा पथ्वीराज और सोमेश्वर ने जैनमन्दिर के लिए ग्राम भेट किए थे । सारांशतः बीजोल्या में एक समय दिगम्बर मनि प्रभावशाली हो गए थे।
अञ्जनेरी गुफाओं में दि० मुनि अंजनेरी और अकई (नासिक जिला) को जैन गुफायें वहां पर १२वीं-१३वौं शताब्दियों में दिगम्बर मुनियों के अस्तित्व को प्रकट करती हैं। पांडलेना गुफाओं का पुरातत्त्व भी इसी बात का समर्थक है !
बेलगाम के पुरातत्व में राजमान्य दि. मुनि बेलगाम का पुरातत्व वहाँ पर १२वीं-१३ वीं शताब्दियों में दिगम्बर मुनियों के महत्व को प्रगट करते हैं, जो राजमान्य थे। यहां के नाटराजानों ने जनमुनियों का सम्मान किया था, यह उनके लेखों से प्रगट है।
१. मप्रारमा०, पृ. ७३.८४-.-"श्रीलाटवागटपोन्नतरोहणाद्रि माणिक्यभूतचरितागृरु देवसेन । सिद्धान्तोद्विविधोप्यवाघितधिया येन प्रमाण ध्वनि । ग्रंथेष प्रभवः श्रियामवगतो हस्तस्थ मुक्तोपमः "अस्थानानविपती बुधादबिगुगो श्रीभोजदेवे नपे सभ्येवंबर सेन पण्डित शिरोरत्नादिपपदान । योनेकानातसो अजेण्ट पटुताभीष्टोद्यसो दादिनः शास्त्रांभोनिधिपारगो भवदन्तः श्री शान्तिरोनोगुरुः ।" २. मप्राजैग्मा०, १०.११७ ३.lbid. P.191
४. lbid.P 195
५. दे०, पृ० १३-२५ ६. एिजंडा०, पृ० ५०१ ७. मप्रा जस्मा०, पृ. १३३६. राई.' १० ३६३ ६. बंप्राजेस्मा, पृ०५६-५६