________________
अब सुन त्य वृत्त भावना, पंच भेद तिनके गावना। प्रथम क्रोध कर झूठ न कहैं, दुतिय मानकर साच न जहै ॥१०॥ तीजै लोभ अर्थ के काज, बचन असत्य न बोल साज। चौथी भीरुत कही भावना, भयसौं झठ न बोले मना ।।११०॥ पंचम प्रत्याख्यान जुराहो, हारप निमिस वचन राज सही। निरावाध बोले मय बंड, सत्यवृत्त दृढ़ करै अखण्ड ||१११॥ प्रचौर्य महाव्रत भावन पंच, तिनके भेद सूनो घर संच । शुन्यागार प्रथम पालेय, गिरि गुह कंदर वास करेय ।।११।। वजी परमोचित घर बास, पर घर रंच करे नहि प्राश । तृतीय परोधाकरन जु नाम पर उपरोधाकरन वसाम ।।११३॥ भक्ष्यशुद्धि चौथी गुण खान, चर्याशुद्धि धरै मन प्रान । पंचम धर्म विसम्बा जान, धर्म परस परवाद न ठान ।।११४॥ ब्रह्मचर्य पांची बिध सार, कोक प्रादि नाटक शृंगार | इनको सुनै न कहै मुनीश, प्रथम भाव तिय राग कथीश ॥११॥ दूजी तन मनोज्ञ निरीक्ष, अंगोपांग न त्रिया परीक्ष । दृष्टि न देखै ताहि शरीर, काम अगनि सी ब्रह्म नीर ॥११॥
प्राज्ञा से उन देवों मे यह घोषणा की कि भगवान का यह समय मोहादि बैरियों के जीतने का है। तमाम देवोंने हर्षित होकर उन प्रभुके सामने खूब ही धूम धाम की-जयवंत हो, आनंद युक्त हो, और वृद्धि पायो । दुंदुभी बाजों के शब्द होने लगे, अपसरायें नत्य करने लगी। किन्नरी देवियां मधुर ग्रावाज से मोहरूपी चैरी को जीतने का यश गान करने लगीं। उन प्रभ के आगे दिक्कुमारी देवियां मंगल अर्घ लेकर चलने लगीं। इस प्रकार वीर प्रभु नगर से बनको चले गये, नगर निवासियोंने प्रभु की बहुत ही प्रशंसा की। कितने ही लोग यह भी कहते थे कि, अभी जिन राज कुमार ही हैं, थोड़ी सी उमरमें इन्होंने कामरूपी वरी को मारकर बड़ा भारी उच्च दर्जे का काम किया है । और आज मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति के लिये तपोवन को चले गये हैं।
इस तरह सुनकर अन्य लोग भी इसी तरह कहने लगे कि मोहको तथा कामदेवरूपी वैरी को प्रभु ही जीत सके हैं. दूसरे में यह समर्थ नहीं है। उसके पश्चात सूक्ष्म विचारवाले इस तरह कहने लगे कि यह सब वैराग्य का ही महात्म्य है, जो भीतरी अंतरंग शश्नों का नाश करने वाला है । वैराग्य के प्रभाव से स्वर्ग के भोग, तीन लोक की संपदाये, पंचेंद्री रूपी चोरों को मारने के लिये त्याग दी जाती है क्योंकि जिसके हृदय में पूर्ण वैराग्य का श्रोत बहता हो, वही चक्रवर्ती की विभूति को क्षण भर में त्याग सकता है 1 दरिद्री मनुष्य अपनी कच्ची झोपड़ी को भी छोड़ने में समर्थ नहीं है । कुछ मनुष्य यह भी कहते सूने गये कि यह बात सत्य है कि वैराग्य के बिना मन पवित्र नहीं हो सकता । इस तरह की बातचीत करते हुए बहुत से नगर निवासी वहाँ पर पहुंचे और तमाशा देखने लगे। भगवान के दर्शन होते ही उनका मस्तक स्वयं झुक गया। इस प्रकार त्रिलोकीनाथ नगर के बाहर प्रा पहुंचे।
जब माता ने भगवान के गमन का संवाद सुना तो वह मूछित होकर पुत्र वियोग में कोमल बेल के समान मुरझा गई। पश्चात् सहन करती करती अनेक पुरजनों और बन्धुओं के साथ पीछे पीछे चली गई। वह इस तरह कहती जाती थी कि हे बेटा ! तं तो मुक्तिसे प्रेम लगाकर तपस्या करने लगा, पर मुझे तेरे बिना कैसे चैन मिलेगी? किस तरह जीवन व्यतीत करूंगी। इस छोटी सी उमर में तपस्या के महान उपसगों को किस तरह सहन करेगा। बेटा, शीत काल की भयंकर हवा से जब तं दिगम्बर भेष में बनमें विचरेगा, तब कैसे उस शीत को बर्दाश्त करेगा ? ग्रीष्म कालकी ज्वालाओं से तमाम बन जल जाते हैं, उसको कैसे सहेगा, श्रावण भादों की काली घटाओं को देखकर अच्छे अच्छे साहसियों के साहस छूट जाते हैं-बेटा ! तं यह सव कष्टों को बर्दाश्त कर लेगा? बस मेरा हृदय इन सब बातों को ज्यों विचारता है, त्यों त्यों और भी कष्ट होता है हे पत्र, अति दुनिवार इन्द्रियजनोंको, त्रैलोक्य विजयी कामदेव को और कषाय रूपी महाशत्रुओं का धैर्य पूर्वक तू अपने वश में कैसे कर सकेगा ? बेटा तू बच्चा है और अकेला है, फिर किस प्रकार इस भयंकर वनको गुफाओं में रह सकेगा, जिसमें कि नाना प्रकार के हिंसक जंगली जीव रहा करते हैं ! इस तरह जिन माता अत्यन्त करुण स्वर में बिलाप कर रही थी और मार्ग में पैरों को बढ़ाती चली जा रही थी कि इतने में उनके पास महत्तर देव माये और उन्होंने कहा--माता, क्या तुम इन्हें नहीं पहचानती? ये तुम्हारे पुत्र संसार के स्वामी और अनुपम शक्तिशाली जगद्गुरु हैं ! अात्मवेशी संसार रूपी समुद्र में अपने आपको बिलीन कर लेने के पहले ही अपना उद्धार तो कर ही लेगा, साथ ही कितने भव्य जीवों का ही उद्धार कर देगा-यह ध्रुव सत्य है। जिस तरह कि मजबूत रस्सी से बंधा हुआ भयानक सिंह भी सहज ही में अपने वशबर्ती किया जा सकता है, उसी तरह यह तुम्हारा पुत्र भी मोहादि रस्सियों से बंधा हुया है। जिसके लिये संसार रूपी समुद्र का दूसरा किनारा पार करने में बहत पास रहा करता है। ऐसा सामर्थ्य शाली यह तुम्हारा पुत्र भला दीनता पूर्वक कल्याण हीन गृहमें रह सकेगा? इनके ज्ञान रूपी तीन नेत्र हैं। संसारको इन्होंने सम्यक् रूपेण जान लिया है फिर भला, वैराग्य उत्पन्न हो जाने पर कोई अन्धकपमें क्यों गिरेगा?