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पूरव रति स्मरण नहि जान, गृहस्थ काल त्रिय भोग मिलान । जाहि अवस्था चित नाहि, सो दढ़ वती ब्रह्मचर्याहि ।।११७।। वष्येष्ट रस चौथी भावना, पट रस सरस सबल भोजना | संपूरन विधि करन मुनीश, अब मून पंच भावना धीश ॥११८।। य संस्कार तास है नाम, भूषण पथ सूक्ष्म बनाम । कोमल सर उपजे तस राग, वजित ये उपभोग समाग ||११६।। अब परिग्रह पंचम व्रत सोय, पच भावना ताकी होय । पांचों इन्द्रिय वश कर रहै, ताके भेद किमपि कछु कहे ॥२०॥ रूपरस इन्द्रिय को परभाव, कोमल विषय रहित तिहि ठाव । रसनेन्द्रिय पटरस ज्याँनार, हा निरास सो भाव अपार ॥१२१॥ नासा गन्ध विषय को राग, त्याग सोम भज बैराग । चक्षु इन्द्रिय रूप मनोग, ताको विषय तजो उपभोग ।।१२२।। श्रोत्रेन्द्रिय है शबद मनोग, मो सुन राग द्वेष तज जोग । ए पच्चीस भावना कही, पंच महाव्रत सो सब लही ।।१२३।। अब सून तीन गुप्ति के भेद, पृथक् पृथक् भाषै नहि खेद । त्रस थावर रक्षा के काज, मन वच सन पालें मुनिराज ॥१२४।। वचन गप्ति पहली है यही, कुबचन यापुन बोल नहीं। पौरहियों बोला नाहि, कहं बोल परिणाम न जाहि ।।१२५।। ऐसे ही मन गुप्त जु कही, तैहि कायगुप्ति कर सही । अब सुन पंच समिति को रीत, जुदो जुदी भाषों घर प्रीति ।।१२६।। ईर्यासमिति प्रथम विख्यात, एक दण्ड भू माधत जात । भाषासमिति दुतीय पहिचान, दश प्रकार भाषा न कहान ।।१२७।। हिमित ललित प्रनत है आदि, जिहि वच होय जोब नहि बाधि । तृतीय एषणा समिति प्रमान, जल आहार शुद्ध कर ठान ॥१२॥ अन्तराय तह रहित बत्तीस, चौदह मल टालहि जोगीश । सब कोई निर्मल मुबिशुद्ध, इहि विधि लेय पाहार निरुद्ध ॥१२६।। प्रदाननिछेपन चौथी कही, जीव जन्तु रक्षा कर राही। जो कछु वस्तु घरै अर लेय, तह मुनीश बहु जतन करेय ॥१३॥ समिति प्रतिष्ठापन पंचमी, मल-मूत्रहि छिप शुद्धहि जिमी । हरित रहित सन्मर्छन वचे, ऐसी क्रिया महामूनि रचे ।।१३।। लहष्डी काया शुद्ध न करें, थूके नहीं जीव जहं मरें । पग प्रक्षालन फामू थान, यह प्रकार चारित्र बखान ।। १३२।।
इसलिये हे माता, तुम इस पापरूणी शोक को छोड़ दो। त्रैलोक्य को अनित्य समझ कर अपने घर जाओ और वहीं पर धर्म साधना में अपने मन को लगायो । अपनी प्रिय एवं इच्छित वस्तु के वियोग काल में ज्ञान हीन पुरुष ही शोक किया करते हैं। जो ज्ञानी एवं बुद्धिमान होते हैं वे सदैव संसार से डरा करते हैं और कल्याणकारी धर्म की उपासना किया करते हैं । महत्तर देव की इन बातों को सुनकर जिनमाता सावधान हो गयीं। उनके हृदय में विवेक रूपी प्रकाशमयी किरणों का प्रादुर्भाव हआ हृदय का शोकान्धकार दूर हो गया। वे अपने विशाल हृदय में पवित्र धर्मको धारण का अपने कूटम्बियों एवं भत्यजनों को साथ लेकर राजमहल को वापस लौट गयीं। इनके बाद जिनेन्द्र महावीर प्रभुजी पार्षदर्ती देवों के साथ मानव समाज के मंगल गान प्रारम्भ करने के प्रथम खंका नाम के विशाल वन में संयम धारने करने के लिये पहुंचे। वह बन अत्यन्त रमणीय था। शीतल छाया वाले फल पुष्पोंसे युक्त वहां सुन्दर सुन्दर पेड़ थे जो अध्ययन एवं ध्यान के लिये अधिक उपयुक्त थे। महावीर स्वामी अपनी पालकी से उतरकर एक चन्द्रकान्त मयी स्वच्छ शिला पर बैठ गये। उस सुन्दर शिला की शोभा विचित्र थीं। उस शिला को महावर स्वामी के आने के पहले ही देवोंने पाकर सुरम्य बना दिया था। वह शिला गोलाकार थी। उस शिला पर विशाल वृक्षों की शीतल एवं घनी छाया पड़ रही थी। चन्द्रमा से घिरे हुए सुरभित जल को बं दे उस शिला पर छिरकी हुई थीं । स्वयं इन्द्राणी के हाथसे बहुमूल्य रत्नोंके चूर्ण द्वारा उस शिलापर सातियां बनाये हुए थे। ऊपर कपड़ेका मण्डप बना हुआ था। उसमें ध्वजा एवं रंग बिरंगी सुन्दर मालाए टंगी हुई थी। चारों ओर धूप का सुगन्धित धुमा फेल रहा था और पासमें भनेक मंगल द्रव्य सजाये हुये थे।
महावीर स्वामी उस सुन्दर स्वच्छ शिलापर उत्तराभिमुख बैठ गये और देह इत्यादि की इच्छा से हीन विरक्त एवं मूक्ति साधना में तत्पर मनुष्यों के कोलाहल को शान्त हो जाने पर शत्र-मित्रादि के सम्पूर्ण स्थानों पर उत्तम समान भाव का चितवन करने लगे । उनने क्षेत्र इत्यादि चेतन एवं अचेतन रूप बाह्य दश परिग्रहों को मिथ्यात्व इत्यादि चौदह अन्तरंग परिग्रहों को और वस्त्र अलंकार एवं माला इत्यादि वस्तुओं का परित्याग कर दिया तथा मनसा, वाचा कर्मणा से पवित्र होकर शरीरादि में निस्पह पूर्वक प्रारम-सुख की प्राप्ति में लग गये। प्रथम उन्होंने पत्यकासन लगाकर मोह बन्धन में फंसाने वाले केशों का लोंच किया केश उखाड़ डाले। बाद में वह जिनेश्वर महावीर स्वामी संपूर्ण पाप क्रियाओं से निमुक्त होकर प्रदाईस मूल गुणों के पालन करने में