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तजियो जीव घात दुख राश, जातें होइ स्वर्ग सुख वास । यह सब व्रत आश्रव उस्कृष्ट, दोष रहित हित कर्ता इष्ट ।।३।। जो संसार भ्रमण भय खाय, रुचि सौं सम्यक् मार्ग घराय । दुरमारग छोड़ो दुखदाय, इहिभव परभवा दुख अधिकाय ।।४०।।
दोहा इहि विधि मुनि मुख चन्द्रमा, उद्भव' वचन विख्यात । धर्म सुधा रस के पियत, बम्यौ कुविष मिथ्यात ।।४१।। वार वार परदक्षिणा, दीनी हरि मुनि पास 1 शिर नवाय बन्दन कियो, श्रद्धा हिय घर जास ।।४।।
चाल छन्द
तत्वारथ श्रद्धा कीनी, श्री जिनवाणी लव लीनी । सम्यक्त्व धरौ जिन अंग, व्रत पाल रहित जु संग ।।४३॥ संन्यास सहित तन खीनी, आहार न पानी कोनौ । सब संचित विजित सोई, हिय शान्त सुसंजम होई ।।४४।। सुध प्रादि परीषह धारी, नित सहत सुधीरज धारी। सब जीवदया को पाल, तनु नेक न इत उत घाल ।। ।। हारि चिन्त धर्म सुध्याना, घात दुठ कर्म कुज्ञाना । धारयो तन निश्चल अंग, थिर चित कर पाप निभंग ॥४६।। जाचत नहि जीव सहाई, व्रत प्रचुर किये हरिराई । संन्यास सहित तज प्राना, हिय शुद्ध समाधि निदाना ।।४।
दोहा द्भत फल स्वर्ग सुधर्म में, सिंह जीव तहं जाय । सिंहकेतु नामा अमर, महाऋद्धि अधिकाय ॥४८।।
चौपाई
- जन्मसो भयो, अन्त मुहरत जोवन लयो । संपूरण तन पायो त, अचरजवान हुनी हिय जवै ।।४।। ततक्षण अवधिज्ञान को भनी, जानो व्रत फल पूरब तनौ । धर्मध्यान माहात्म्य अपार, सम्यक्मति दृढ़ गहियो सार ||५०।
वनों को धारण करें और अन्तिम काल में संन्यारा व्रत ग्रहण कर प्राण त्याग कर। तुम अन्य सब प्रकार के हिसादि पापों का परित्याग कर दो। अब तुम्हें संसार में भटकते रहने का बिलकुल' डर नहीं रहा, अत: बुरे मार्ग का सर्वथा परित्याग कर शुभ मार्ग ग्रहण करो।
मित योगी के मुख कमल से प्रकट हुए धर्मरूपी अमृत का पान कर त्रिपृष्ट के जीव सिंह ने मिथ्यात्य रूप विष को उगल दिया। इस कारण वह अब शुद्ध चित्त हो गया। पश्चात् उसने दोनों मुनियों की परिक्रमा कर तथा उनके चरणों में मस्तक टेक कर देव, शास्त्र, गुरु का श्रद्धान रूप सम्यक्त्व ग्रहण किया तथा समय पाकर उसने संन्यास व्रत के साथ-साथ परतवतों को ग्रहण किया। पूर्व में इस सिंह का भोजन मांस के अतिरिक्त दूसरी वस्तु नहीं थी, इसलिये उसे व्रत धारण सोही कठिनाईयों का सामना करना पड़ा । फिर भी उसने बड़े पर्य के साथ व्रतों का पालन किया। प्राचार्य का कथन है कि वह कौनसा कार्य है, जो होनहार आने पर नहीं होता अर्थात अपने पाप हो जाता है।
दोनों मनियों के उपदेश से प्रभावित वह सिंह शांतचित्त वाला और प्रत्यन्त संयमी हो गया। उसे देखकर ऐसा प्रतीत होने लगा कि चित्राभका सिंह है। वह भूख प्यास आदि सारी वेदनामों को सहन करते हुए भी संसारको दु:खमयी स्थिति पर सर्वदा विचार किया करता था। धैर्य पूर्वक समस्त जीवों पर दया भाव दिखलाता हया, वह पात रौद्र ध्यानों को छोडने लगा पन: पापोंको नष्ट करने वाला धर्म-ध्यान और सम्यक्त्व आदिका चिन्तवन करने लगा।
इस प्रकार उस सिंहने जीवन पर्यन्त व्रतोंका पूर्ण रूपसे पालन किया । अन्त में समाधि मरण द्वारा उसको मत्यहई। ताहिकों के फलस्वरूप सौधर्म नामके प्रथम स्वर्ग में महान ऋद्धि धारी सिंहकेतु नामका देव हया। उसे दो घड़ो के अन्दर
निमा के त्याग और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का फल यह हुआ कि मर कर वह सीधर्म नाम के पहले स्वर्ग में सिंह के नाम का महान अद्धियों का धारी देव हुआ। जहाँ से वह अकृत्रिम चैत्वालय में जाकर श्रेष्ठ तथ्यों सहित अन्त देव की पूजा किया करता था। मगध लोक नन्दी श्वरादि द्वीपों मे जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमाओं की पूजा तथा मुनियों की भक्तिपूर्वक बन्दना करता था।
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