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कों को विनष्ट कर शीघ्र ही केवल ज्ञान प्राप्त कीजिये । वे ऐसा निवेदन कर वापस चले गये। भगवान ने समस्त परिजनों से पूछा। पुनः मनोहर पालको में सवार हुए। इन्द्र ने पालको उठाई और आकाश द्वारा भगवान को नामखण्ड नामक वन में पहुंचाया। वहां पहुंचकर इन्द्र ने पालकी उतार दी और भगवान एक स्फटिक शिला पर उत्तर दिशा की ओर मुहकर विराजमान हो गये। अत्यन्त बुद्धिमान महावीर प्रभु ने, मार्गशीर्ष कृष्ण-दशमी के दिन सायंकाल के समय दीक्षा ग्रहण को और सर्व प्रथम उन्होंने पष्ठोपवास करने का नियम धारण किया। भगवान के पंचमुष्ठि लाँच वाले केशों को इन्द्र ने मणियों के पात्र में रखा और उन्हें क्षीर सागर में पधराया। अन्य देवगण चतुःज्ञान विभूषित भगवान को नमस्कार कर अपने-अपने स्थान को चले गये । पारणा के दिन भगवान कुलय नामक नगर के राजा कुल के घर गये । राजा ने नवधा भक्ति के साथ भगवान को प्राहार दिया। आहार के बाद वे भगवान प्रक्षयदान देकर बन को चले गये । उस माहार दान का फल यह हुमा कि, देवों ने राजा के घर पंचाश्चयों की वर्षा की। सत्य है, पात्रदान से धर्मात्मा लोगों को लक्ष्मी प्राप्त होती है।
__ एक दिन की घटना है । भगवान अतिमुक्ति नामक श्मशान में प्रतिमायोग धारण कर विराजमान थे। उस समय भवनाम के रुद्र (महादेव) ने उन पर अनेक उपसर्ग किए, पर उन्हें जीतने में समर्थ न हो सका । अन्त में उसने पाकर भगवान को नमस्कार किया और उनका नाम महावीर रखा । इस प्रकार तप करते हुए भगवान को जब दारह वर्ष व्यतीत होगये, तब एक ऋजुकुल नाम की नदी के समीपवर्ती जूभक ग्राम में वे षष्टोवास (तेला) धारण कर किसी शिला पर आसीन हए। उस दिन वैशाख शुक्ल दशमो थी। उसी दिन उन्होंने ध्यानरूपी अग्नि से धातिया कर्मों को नष्ट कर केवल ज्ञान की प्राप्ति की। केवल-ज्ञान हो जाने पर शरीर को छाया न पड़ना ग्रादि दशौं अतिशय प्रकट हो गये। उस समय इन्द्रादिकों ने आकर भगवान को भक्ति के साथ नमस्कार किया। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने चार कोस लम्बा-चौड़ा समवशरण निर्मित किया। वह मानस्तंभ ध्वजा दण्ड घंटा, तोरण, जल से परिपूर्ण खाई, सरोवर, पुष्प वाटिका, उच्च धुलि प्राकार नत्य शालाओं, की उपवनों से सुशोभित था तथा वेदिका, अन्तर्ध्वजा सुवर्णशाला, कल्पवृक्ष प्रादि से विभूषित था। उसमें अनेक महलों की पक्तियां थीं। वे मकान सवर्ण और मणियों से बनाये गये थे। वहां ऐसी मणियों की शालाये थीं, जो गीत और बाजों से सुशोभित हो रही थी । समवशरण के चारों ओर चार बडे-बडे फाटक थे। वे सुवर्ण के निमित भवनों से भी अधिक मनोहर दीखते थे। उसमें बारह सभायें थीं, जिसमें मुनि, अजिका कल्पवासीदेव, ज्योतिषी, देव, व्यंतरदेव, भवनवासी देव, कल्पवासी देवांगनायें ज्योतिषी देवों की देवांगनायें भवनवासी,देवों की देवांगनाये, मनुष्य तथा पशु उपस्थित थे। अशोक वृक्ष, दुदभी, छत्र, भामण्डल, सिंहासन, चमर पुष्पवष्टि और दिव्यध्वनि उक्त आठों प्रातिहाथों से श्रीवीर भगवान सुशोभित हो रहे थे । इसके अतिरिक्त अठारह दोषों से रहित और चौंतीस अतिशयों से सुशोभित थे । अर्थात् विश्व की समग्र विभूतियां उनके साथ विराजमान थीं। इस प्रकार भगवान को मासीन हए तीन घंटे से अधिक हो गये, पर उनकी दिव्यवाणी मौन रही। भगवान की मौनावस्था में देखकर सीधर्म इन्द्र ने अवधिज्ञान से विचार किया, कि यदि गौतम का आगमन हो जाय तो भगवान की दिव्यवाणी उच्चरित हो। गौतम को लाने के विचार से इन्द्र ने एक वृद्ध का रूप बना लिया, जिसके अंगर कांप रहे थे। वह वृद्ध ब्राह्मण नगर की गौतमशाला में जा पहंचा । वृद्ध के कांपते हुए हाथों में एक लकड़ी थी। उनके मुह में एक भी दांत नहीं थे, जिससे पूरे अक्षर भी नहीं निकल पाते थे 1 उस वृद्ध ने शाला में पहुंच कर आवाज लगाई-ब्राह्मणों। इस शाला में कौन-सा व्यक्ति है, जो शास्त्रों का ज्ञाता हो और मेरे समस्त प्रश्नों का उत्तर दे सकता हो । इस संसार में ऐसे कम मनुष्य हैं जो मेरे काव्यों को विचार कर ठीक ठीक उत्तर दे सकें। यदि इस श्लोक का ठीक अर्थ निकल पायगा तो मेरा काम बन जायगा, आप धर्मात्मा हैं, अत: मेरे श्लोक का अर्थ बतला देना ग्रापका कर्तव्य है। इस तरह तो अपना पेट पालने वालों की संख्या संसार में कम नहीं है, पर परोपकारी जीवों की संख्या थोडी है। मेरे गुरु इस समय ध्यान में लगे हैं और मोक्ष पुरुषार्थ को सिद्ध कर रहे हैं, अन्यथा वे बतला देते । यही कारण है कि आपको कष्ट देने के लिए उपस्थित हुआ हूं । आपकाकर्तव्य होता है कि, उसका समाधान कर दें । उस वृद्ध की बातें सुनकर अपने पांच सौ शिष्यों द्वारा प्रेरित गौतम शुभ वचन कहने लगा, हे वृद्ध ! क्या तुझे नहीं मालूम, इस विषय में अनेक शास्त्रों में पारंगत और पांच सौ शिष्यों का प्रतिपालक में प्रसिद्ध हूं। तुम्हें अपने काव्य का बड़ा अभिमान हो रहा है। कहो तो सही, उसका अर्थ मैं अभी बतला दूं। पर यह तो बताओ कि मुझे क्या दोगे ? उस वृद्ध ने कहा- ब्राह्मण । यदि आप मेरे काव्य का भनि बतला देंगे तो मैं आपका शिष्य बन जाऊगा । किन्तु यह भी याद रखिये कि यदि आपने यथावत उत्तर नहीं दिया तो यापको भी अपनी शिष्यमण्डली के साथ मेरे गुरु का शिष्य हो जाना पड़ेगा। गौतम ने भी स्वीकृति दे दी। इस प्रकार इन्ट और गौतम दोनों ही प्रतिज्ञा में बंध गये । सत्य है ऐसा कौन अभिमानी है जो न करने योग्य काम नहीं कर डालता। इसके पञ्चात सौधर्म के इन्द्र ने गौतम के अभिमान को दूर करने के उद्देश्य से आगम के अर्थ को सूचित करने वाला तथा गंभीर अर्थ से भरा हुआ एक काव्य पढ़ा । बह काव्य यह था