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होता है जो कि उज्ज्वल यश के समूह के समान जान पड़ता है । अथवा चांदी का बना हुमा वह विजयाध-पर्वत ऐसा जान पड़ता है कि स्वर्ग लोक को जीतने से जिसे संतोष हुमा है ऐसी पृथ्वी रूपी स्त्री का इकट्ठा हुमा मानो हास्य ही हो ।
हमारे ऊपर पड़ी हुई वृष्टि सदा सफल होती है और तुम लोगों के ऊपर पड़ी हुई वृष्टि कभी सफल नहीं होती इस प्रकार वह पर्वत अपने तेज से सुमेरु पर्वतों की मानो हंसी ही करता रहता है। ये नदियां चंचल स्वभाव वाली हैं, जल से (पक्ष में जड़धि-मूर्ख) को प्रिय हैं इसलिए घृणा से ही मानो उसने गंगा-सिन्धु इन दो नदियों को अपने गुहारूपी मुख से वमन कर दिया था। वह पर्वत चक्रवर्ती का अनुकरण करता था क्योंकि जिस प्रकार चक्रवर्ती अपने आश्रम में रहने वाल देव और विद्याघरों के द्वारा सदा सेवनीय होता है और समस्त इन्द्रिय-सुखों का स्थान होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी अपने माश्रय में रहने वाले देव मौर विद्याधरों से सदा सेवित था और समस्त इन्द्रिय सुखों का स्थान था। उस विजया पर्वत की दक्षिण श्रेणी में रथनपर चक्रवाल नाम की नगरी है जो अपना पताकाओं से आकाश को मानो बलाकाओं से सहित हो करती रहती है। वह मेघों को चूमने वाले रत्नमय कोट से घिरी हुई है इसलिए ऐसी जान पड़तो है मानो रत्न की वेदिका से घिरी हुई जम्बूद्वीप की भूमि ही हो। वहां धर्म, अर्थ पीर काम ये तीन पुरुषार्थ हर्ष से बढ़ रहे थे और दरिद्र शब्द कहीं बाहर से भी नहीं दिखाई देता था-सदा छुपा रहता था।
जिस प्रकार अन्य मतावलम्बियों के लिए दुर्गम-कठिन प्रमाण, नय, निक्षेप और अनुयोग इन चार उपायों के द्वारा पदार्थों की परीक्षा सुशोभित होती है उसी प्रकार शत्रुनों के लिए दूर्गम-दुःख से प्रवेश करने के योग्य चार गोपुरों से वह नगरी सुशोभित हो रही थी। जिस प्रकार जिनेन्द्र भगवान को विद्या में प्रचारित्र-असंयम का उपदेश देने वाले वचन नहीं हैं उसी प्रकार उस नगरी में शीलरूपी प्राभूषण से रहित कुलवती स्त्रियाँ नहीं थी। ज्वलनजटी विद्याधर उस नगरी का राजा था, जो अत्यन्त कुशल था और जिस प्रकार मणियों का आकार स्थान-समुद्र है उसी प्रकार वह गुण मनुष्यों का साकार था। जिस प्रकार सूर्य के प्रताप से नये पते मुरझा जाते हैं उसी प्रकार उसके प्रताप से शत्रु मुरझा जाते थे-कान्ति हीन हो जाते थे और जिस प्रकार वर्षा से लताएं बढ़ने लगती हैं उसी प्रकार उसको नीति से प्रजा सफल होकर बढ़ रही थी। जिस प्रकार यथा समय यथास्थान बोये हुए धान उत्तम फल देते हैं उसी प्रकार उसके द्वारा यथा समय यथा स्थान प्रयोग किये हुए साम आदि उपाय बहुत फल देते थे। जिस प्रकार आगे की संख्या पिछली संख्याओं से बड़ी होती है उसी प्रकार वह राजा पिछले समस्त राजाओं को अपने गुणों और स्थानों से जीतकर बड़ा हुआ था। उसकी समस्त सिद्धियां देव और पुरुषार्थ दोनों के प्राधीन थी, वह मंत्री आदि मूल प्रकृति तथा प्रजा आदि बाह्य प्रकृति के क्रोध से रहित होकर स्वराष्ट्र तथा परराष्ट्र का विचार करता था, उत्साह शक्ति, मन्त्र शक्ति और प्रभुत्व शक्ति इन तीन शक्तियों तथा इनसे निष्पन्न होने वाली तीन सिद्धियों को अनुकलता से उसे सदा योग और क्षेम का समागम होता रहता था, साथ ही वह सन्धि विग्रह यान प्रादि छह गुणों को अनुकूलता रखता था इसलिए उसका राज्य निरन्तर बढ़ता ही रहता था।
उसी विजया पर द्युतिलक नाम का दूसरा नगर था। राजा चन्द्राम उसमें राज्य करता था, उसकी रानी का नाम सभद्रा था। उन दोनों के वायुवेना नाम की पुत्री थी। उसने अपनी वेगविद्या के द्वारा समस्त वेगशाली विद्याधर राजामों को जीत लिया था। उसकी कान्ति चमकती हुई बिजली के प्रकाश को जीतने वाली थी। जिस प्रकार भाग्यशाली पुरुषार्थी मनु-य की बुद्धि उसकी त्रिवर्ग सिद्धि का कारण होती है उसी प्रकार समस्त गुणों से विभूषित वह वायुवेगा राजा ज्वलनजटी की त्रिवर्म सिद्धि का कारण हुई थी। प्रतिपदा के चन्द्रमा की रेखा के समान वह सब मनुष्यों के द्वारा स्तुत्य थी। तथा अनुराग से भरी हई द्वितीय भूमि के समान वह अपने ही पुरुषार्थ से राजा उबलन के मोगने योग्य हुई थी। वायुवेगा के प्रेम की प्रेरणा से ज्वलनजटीने अनेक ऋद्धियों से युक्त राजलक्ष्मी को उसका परिकर-दासी बना दिया था सो ठीक ही है क्योंकि अलभ्य वस्तु के विषय में मनुष्य क्या नहीं करता है ? बड़े कुल में उत्पन्न होने से तथा अनुराग से युक्त होने के कारण उस पतिव्रता के एक पतिव्रत था और प्रेम की अधिकता से उस राजा के एकपत्नीव्रत था ऐसा लोग कहते हैं।
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