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जिस प्रकार इन्द्राणी में इन्द्र को लोकात्तर प्रीति होती है उसी प्रकार उसमें ज्वलनजटी को लोकोत्तर प्रीति थी फिर उसके रूपादि गुणों का पृथक पृथक् क्या वर्णन किया जावे। जिस प्रकार दया और सम्यग्ज्ञान से मोक्ष होता है उसी प्रकार उन दोनों के अपनी कीति की प्रभा से तीनों लोको को प्रकाशित करने वाला अकंकीति नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। जिस प्रकार नीति और पराक्रम से लक्ष्मी होती है उसी प्रकार उन दोनों के सबका मन हरने वाली स्वयंप्रभा नाम की पुत्री भी उत्पन्न हुई जो अर्कोति के साथ इस प्रकार बढ़ने लगी जिस प्रकार कि चन्द्रमा के साथ उसकी प्रभा बढ़ती है वह मुख से कमल को, नेत्रों से उत्पल को, आभा से मणिमय दर्पण को और कान्ति से चन्द्रमा को जीत कर ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो भौंहरूप पताका हो फट्टा रही हो। लता में फूल के समान ज्यों ही उसके शरीर में योवन उत्पन्न हुआ त्यों हो उसने काम विद्याधरों में कामज्वर उत्पन्न कर दिया कुछ-कुछ पीले और सफेद कपोलों को कान्ति से सुशोभित मुल-मंडल पर उसके नेत्र बड़े चल हो रहे थे जिससे वह ऐसी जान पड़ती थी मानो कमर को पतली देख उसके टूट जाने के भय से ही नेत्रों को चंचल कर रही हो। उस दुबली-पतली स्वयंप्रभा की इन्द्रनील मणि के समान कान्तिवाली पतली रोमसजी ऐसी जान पड़ती थी मानो उछल कर ऊंचे स्थूल थोर निविड़ स्तनों पर चढ़ना ही चाहती हो । यद्यपि कामदेव ने उसका स्पर्श नहीं किया जा तथापि प्राप्त हुए यौवन से ही वह कामदेव के विकार को प्रकट करती हुई-सी मनुष्यों के दृष्टिगोचर हो रही थी ।
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अथानन्तर किसी एक दिन जग-नन्दन और नाभिनन्दन नाम के दो चारण ऋषि मुनिराज मनोहर नामक उद्यान में आकर विराजमान हुए । उनके आगमन की खबर देने वाले वनपाल से यह समाचार जानकर राजा चतुरंग सेना, पुत्र तथा अन्तःपुर के साथ उनके सो गया। वहां वन्दता कर उसने श्रेष्ठ धर्म का स्वरूप सुना, बड़े आदर से सम्यग्दर्शन तथा दान शीलयादि व्रत ग्रहण किये, तदनन्तर भक्तिपूर्वक उस चारणऋद्विचारों मुनियों को प्रमाण कर यह नगर में वापिस आ गया। स्वयंप्रभा ने भो वहां मोदी धर्म ग्रहण किया। एक दिन उसने पर्व के समय उपवास किया जिससे उसका शरीर कुछ म्लान हो गया । उसने अर्हन्त भगवान का पूजा को तथा उनके चरण कमलों के सम्पर्क से पवित्र पाप हारिणो विचित्र माला विनय सेक कर दोनों हाथों से पिता के लिए दी। राजा ने भक्ति पूर्वक वह माला लेकर उपवास से की हुई स्वयंत्रभा की घोर देखा, "जायो पारणा करो' यह कह उसे विदा किया। पुत्री के चबा पर राजा मन ही मन विचार करने लगा कि जी यौवन से परिपूर्ण समस्त रंगों से सुन्दर है ऐसी यह पुत्रो किसके लिये देनी चाहिये । उसने उसी समय मन्त्रिवर्ग को बुलाकर प्रकृत बात कही, उसे सुन कर सतनाम का मंत्री परीक्षा कर तथा अपने मन में निश्चय कर बोला।
( कि इसी विजया की उत्तर श्रेणी में अलका नगरी के राजा मयूरग्रीव हैं, उनको स्त्रो का नाम नीलाजंना है उन दोनों के अश्वपीय, नीलरव, नीलकण्ठ, सुकण्ठ धीर वचकंड नाम के पांच पुत्र हैं। इनमें परवोध सबसे बड़ा है । अश्वग्रीव की स्त्री का नाम कनकचित्रा है उन दोनों के रत्नग्रोव रत्नागंद रत्नमूड तथा रत्नरथ आदि, पांच सौ पुत्र है। शास्त्रज्ञान का सागर हरियम इसका मंत्री है तथा मतबिन्दु निमिज्ञानी है-पुरोहित है जो कि टांग निमित्तज्ञान में अतिशय निपुण है। इस प्रकार वो सम्पूर्ण राज्य का अधिपति है और दोनों श्रेणियों का स्वामी है अतः इसके लिए ही कन्या देनी चाहिए। इसके बाद त मंत्री के द्वारा कही हुई बात का विचार करता हुआ बहुश्रुत मंत्री राजा से अपने हृदय की बात कहने लगा। वह बोला कि सुश्रुत मन्त्री ने जो कुछ कहा है वह यद्यपि ठीक है तो भी निम्नांकित बात विचारणीय है। कुलीनता, आरोग्य, यवस्था शील, श्रुत, शरीर, लक्ष्मी, पक्ष और परिवार, बर के ये नौ गुण कहे गये हैं। अश्वग्रीव में यद्यपि ये सभी गुण विद्यमान हैं किन्तु उसकी अवस्था अधिक है, अतः कोई दूसरा वर जिसकी अवस्था कन्या के समान हो और गुण अश्वग्रीव के समान हों, खोजना चाहिए।
मगनवलपुर का राजा चित्ररथ प्रसिद्ध है. मेघपुर में श्रेष्ठ राजा पद्मरथ रहता है, विषपुर का स्वामी परिजय है। त्रिपुरनगर में विद्याधरों का राजा ललितांगद रहता है, अश्वपुर का राजा कनकरथ विद्या में प्रत्यन्त कुशल हैं, और महारत्न
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