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नामक ग्राम को भेंट में देने का उल्लेख किया है। ! यह ताम्रपत्र ई. पांचवीं शताब्दी का है। इससे स्पष्ट है कि तब के श्वेताम्बर भी अपने को निर्ग्रन्थ न कहकरदिगम्बर सोही मिसिंघमानते थे। यदि यह बात न होती तो बह अपने को 'श्वेतपट' और दिगम्बर को 'निर्गन्य' न लिखाने देते।।
कदम्ब ताम्रपत्र के अतिरिक्त विक्रम सं० ११६१ का ग्वालियर से मिला एक शिलालेख भी इसी बात का समर्थन करता है। उसमें दिगम्बर जैन यशदेिव को निन्थनाथ' अर्थात् दिगम्बर मुनियों के नाथ श्री जिनेन्द्र का अनुयायी लिखा है। अतः इससे भी स्पष्ट है कि 'निर्ग्रन्थ' शब्द दिगम्बर मुनि का द्योतक है।
चीनी यात्री हवेंगसांग के वर्णन से भी यही प्रगट होता है कि 'निग्रन्थ' का भाव नग्न अर्थात् दिगम्बर मुनि है :
"The Li-hi (Nirgranthas) di tinguish themselves by leaving their bodies naked and pulling out their hair" (St. Julio, Vienna P. 224)
अतः इन सब प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि निर्गन्थ' शब्द का ठोक भाब दिगम्बर (नग्न) मुनि का है। १६. निरागार-प्रागार घर आदि परिग्रह रहित दिगम्बर मुनि । 'परिग्रहरहिरो निरायारो।' २०. पाणिपात्र-करपात्र ही जिनका भोजन पात्र है, वह दिगम्बर मुनि।
णिच्चल पाणिपत उवइटें परम जिणचरि देहिं ।' २१. भिक्षुक--भिक्षावृत्ति का धारक होने के कारण दिगम्बर मुनि इस नाम से प्रसिद्ध होता है। इसका उल्लेख "मूलाचार" में मिलता है :
'मणवाचकायपउत्ती भिवखु साबज्जकज्जसंजुत्ता।
विप्पं णिवारयंतो तीहि दु गुत्तो हवादि एसो।।३३।।' २२. महाबती-पंच महावतों को पालन करने के कारण दिगम्बर मुनि इस माम से प्रकट है। २३. माहण-ममत्व त्यागी होने के कारण माण नाम से दिगम्बर मुनि अभिहित होता है। २४. मुनि--दिगम्बर साधु । श्री कुन्दकुन्दाचार्य इसका उल्लेख यूं करते हैं :
पंचमहन्वय जुत्ता पंचिंदिय संजमा णिरावेक्खा।
सज्झायझयण जुत्ता मुणिवर वसहा णिइच्छति ।। २५. यति-दिगम्बर मुनि । कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं :
"सुद्धं संजमचरणं जधम्मं णिक्कलं वोच्छ ।' २६. योगी-योगनिरत होने के कारण दिगम्बर साधु का यह नाम है। यथा :
"जं जाणियुण जोई जो अत्थो जोई ऊण प्रणवरयं ।
अवाबाहमणतं अणोवयं लहइ णिब्याणं ।।" २७. वात वसन-- वायु रूपी वस्त्रधारी अर्थात् दिगम्बर मुनि ।
___ "श्रमण दिगम्बराः श्रमण वातवसनाः"-इतिनिघण्टुः - - - - ----.
.......कदम्बा श्रीबिजयशिवमृगेशबर्मा कालवंग ग्राम विधा विशजय दत्तवान अत्रपूर्वमहच्छाला परमपूरकलस्थान निवासिभ्यः भगवर्दपन्महाजिनेन्द्र-देवताभ्य एकोभागः द्वितीयोहंत्योक्तस वर्मकरण परस्य श्वेतपट महाश्रमशासंघोपभीगाय तृतीयो निन्यमहाश्रमण संघोपभोगा येति ।"
-जैहि मा0 १४ पृ० २२६॥ २. The Gwalior inscrips: of Vik. S. 1161 (1104 A. D.)
" It was composed by a Jain Yasodeva, who was an adherent of the Digambara or nude sect (Nigranthanatha)" --Catalogue of Archacological Exhibits in the U. P. P. Museum Lucknow, Pts. (1915) P.44 ३. अष्टः पृ०७० ४. बृजेश, पृ०४
५. अष्ट० पृ० १४२ ६. अष्ट० पृ०६९
७. अष्ट०, पृ० १६०
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