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चर्या
चार हाथ प्रमाण शोधत, दृष्टि इत उत नहि करें। चलत कोमल पाय तिनकै, कठिन धरती पर धरै ।। चढ़त थे गज पालकी पर, तास याद न मानहो । सहहि चर्या दुःख जे मुनि, तिनहिं पद पर नामही ।।३०१।।
मासन शल शीस मसान कानन, गुफा विवर बसें सदा । तहै पान उपजह कष्ट कौनहु, कर्ण जोगन तं सदा ॥ मनुष सुर पशु पर प्रचेतन, विपत पान सतावहीं। ठोर तब नहि भजंहि थिर पद, निपध विजय कहावहीं ।।३०२॥
शय्या हेम महलन चित्र सारी, सेज कोमल सोबते । विकट वन में एकले है, कठिन भुवि तहां जीवते ।। गड़त पाहन खंड प्रति ही, तासको कायर नहीं। ऐसी परीषह शयन जीतत, नमौं तिनके पद तहीं।।३०३11
प्राक्रोश जगत जिय मुनि देखि कोई, कहत दुठ दुर वचन । पाखण्डि ठग यह चोर कोई, मार मार जु कहत जै ।। वचन ऐसे सुनत जिनके, क्षमा हाल ज प्रोढई । सो अक्रोश परीपह विजयी, तिनही पद कर जोड़ई ।।३०४ ।।
वध सदा समता गहें सब सौं, दुष्ट मिलि तिन मारहीं। खेंच बांध खम्भ सों पुनि, अगनि तम पर, जारहीं। कोप तहं मुनि करत नाही, पूर्व कर्म विचारहीं । सहैं वध बन्धन परीषह, तिनहिं पद शिर धारहीं ।।३०५॥
याचना भयौ जो कछु रोग प्रादी, देह अति विह्वल' भई । नशा जाल जु रुधिर सूख्यौ, अस्थि चाम विला गई॥ सहत प्रति ही क्लेश दारुण, महा दुर्घर त परै । प्रशन प्रौषधि पान आदिक, याचना मुनि नहीं करें॥३०६॥
अलाभ एक बार पाहार बिरियां, मौन ले वसती बसे । जो भिक्षा वनहि जौ नहि, खेद तो उर नहि वसे ।। इमि भ्रमत बह दिन बीत जाहीं, विरत भावना भावहीं । सो अलाभ परीषह विजयी, साधु गुण तसु गावहीं ॥३०७।।
समय वह किलकारियां मार रहा था, नुकीले २ भयानक दांतों को दिखा-दिखाकर हंस रहा था, ताल, एवं लयके अनुसार गा, बजा एवं नाच रहा था, साथ ही अनेक विशाल मुख-लिवरको फाड़े हुए और हाथों में तीक्ष्य आयुधोंको धारण किये हुए था। इस प्रकारके महा भयोत्पादक स्वरूपको लेकर वह महावीर स्वामीके प्रागे पाया और उनके ध्यान को भंग करने के लिये बड़ा भारी उपसर्ग किया । परन्तु इन उपद्रवों का महावीर प्रभु पर किसी प्रकार का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और उनका ध्यान यथापूर्व प्रचल एवं अट्ट बना रहा । जब इतना करने पर भी जिनेन्द्र के ध्यानको वह रुद्र नहीं भंग कर सका तब उसने दूसरे उपायों का
२०. प्रज्ञा परोषह-जहां हम थोड़ी-सी बात पर भी अधिक मान कर बैठते हैं वहाँ महाज्ञानवान् महातपस्वी, महाउत्तम कुल के शिरोमणी, होने पर भी श्री महावीर स्वामी किसी प्रकार का मान न करते थे।
२१. प्रज्ञान परीवह-वर्षों तक कटोर तपस्या करने पर भी केवल ज्ञान (Omniscience) की प्राप्ति न होने से वे इसकी प्राप्ति न होने से इसकी प्राप्ति में काम करते थे बल्कि यह विश्वास रखते हुए कि मेरा ज्ञानावर्णी कर्मरूपी ईधन इतना अधिक है कि यह कठोर तपस्या भी उसको अभी तक भस्म न कर सकी, अपने कर्मों की निर्जरा के लिए और अधिक कठोर तप करते थे।
२२. अवन परीवह-जहाँ हम थोड़ा-सा भी धर्म पालने से अधिक संसारी सुखों की अभिलाषा करते है और उनकी सुगत प्राप्ति न होने पर हर उसमें शंका करने लगते हैं, वहां श्री वर्द्धमान महावीर बारह वर्ष तक सच्चा सुख न मिलने से धर्म के महत्व में शंका न करते थे। उन्हें विश्वास था कि कर्मों का नाश हो जाने पर अविनाश सुखों की प्राप्ति मापसे आप अवश्य हो जावेगी।