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रोग वात पितरफ सौर शोणित चार ए जन तन बढ़ें। रोग शोक अनेक इहि विधि, जीव कायरता चढे ।। सहै वेदन व्याधि दारुण, चाह नहि उपचारकी । पातमा थिर देह विरकत, जैन मुद्रा धारको ॥३०८।।
लगत कांटे गडत कंकर, पाय अति छिदना भये, पवन प्रेरित धूलि कण उड़ि, जगम लोचन में गये। परको सहाय न तहू वांछत, भावना सम धरतही, साधु तृण विजयी परीषह, कृपा हम पर करत ही ॥३०६।।
चलत अतिहि पसेब ग्रीषम, धूलि उड़ि आंखिन परै। मलिन देह जु देख मुनिवर, मलिनता नहिं उर धरै।। चारित्र दर्शन ज्ञान जलकर, पाल मल तंह धोवहीं । जनित मल परिषह निवारन, साघु ते हम जोवहीं ।।३१०॥
अविनय महाविद्या विधि मनोहर, परम तपसी गुण गुरू । वचन हित मित कहत सब सौं, पातमा पद थिर धरू ।। विनय कोय न करत तिनकी, अरु प्रणाम न भाषई । खेद मुनि कछु करत नाही भाव समता राखई ॥३११॥
प्रज्ञा तकं छन्द जु व्याकरण गुण, कला पागम तब पढ्यो । देखि जाकी सुमति वादी, लाज प्रति उरमें बढ़यो । सुनत जैसे माद केहरि, वन गयंद जु भाजई। महामुनि इमि प्रज्ञ भाजन, रंच मद नहि छाजई ॥३१२॥
अज्ञान कर्यो दीरघ काल में तप, कष्ट बहुविध तन सह्यो। तीन गुप्ति सम्हाल निश दिन, चित्त इत उत नहि रहयो ।। अवधि मन परजय जु केवलज्ञान, प्राजहू नहि जग्यौ । तजं इहि विधि साधु विकलप, सो प्रज्ञानी, पर ठग्यौ ॥३१३।।
प्रदर्शन काल बहु संयम जु पाल्यौ, नियम बत कीनै घने । होइ तपसौं सिद्धि शिवकी, झूठसी लागत मने ॥ जो भाब ये उरमें न आने परम समता थिर रमें। साधु सोइ अधर्म विजयी, 'नवल' तिनके पद नमैं ।।३१४||
अवलम्बन किया। वह स्थाणरुद्र सर्प, सिंह, हाथी, प्रबल वायु एवं अग्नि इत्यादि के रूप में माकर तथा उत्पीडक वचनोंके द्वारा उग्र उपसर्गोका प्रारम्भ करने लगा। इन उपसगसेि निबल-हुदयोमें तो भयका संचार हो सकता था, किन्तु महावीर स्वामीका कळ नहीं हमा. वे बराबर अचल ही बने रहे। उनका ध्यान भंग होना तो दूर रहा, उत्तरोत्तर ध्यानकी गम्भीरता बढ़ती ही गयी। जस प्रकार भी सफलता नहीं मिली तब स्थाणु रुद्र और अन्य प्रकारके घोर उपसगीको प्रकट करने लगा। भीलोंके आकार में भयानक शस्त्रास्त्रोंको दिखाकर प्रभुके हृदय में भय उत्पन्न करना चाहा, परन्तु इन अनेक उग्र उपद्रदोंसे प्रोतप्रोत रहने पर भी वर जगत्स्वामी जिनेन्द्र महावीर स्वामी जंसा का तसा पवतके समान एकदम अचल बना रहा। किचित्मात्र भी खिन्नताका आभास नहीं मिला। प्राचार्यने कहा कि...-कदाचित् अचल पर्वत भी चलायमान हो जाये परन्तु श्रेष्ठ योगियोंका चित्त हजारों उम्र उपद्रवोंके द्वारा भी कदापि चलायमान नहीं हो सकता। इस संसारमें वे ही लोग धन्य है जो कि ध्यान मग्न हो जाने पर भी विकार यूक्त होकर ध्यान भंग करने में कदापि नहीं प्रवृत्त होते ।
उसके बाद जब जिनेन्द्र महावीर स्वामीके ध्यानको भंग करने में स्थाणु रुद्र को कुछ भी सफलता प्राप्त करने की प्राशा नहीं रही तब हताश एवं लज्जित होकर वहीं उनकी स्तुति करने लगा-हे देव, इस संसारमें तुम्ही बली हो, तुम्ही जगदगुरू हो एवं वीर शिरोमणि हो इसीलिये तुम्हारा नाम 'महावीर' है । तुम महा ध्यानी हो, सम्पूर्ण जगत्के स्वामी हो, सकल परीषहोंके
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