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गाथाओं से अोतप्रोत हैं। उदाहरणतः गङ्गसेनापति क्षत्रचूड़ामणि श्री चामुण्डराय को ही ले लीजिए, वह जैनधर्म के दृढ़ श्रद्धानी ही नहीं, बल्कि उसके तत्व के ज्ञाता थे। उन्होंने जैनधर्म पर कई श्रेष्ठ ग्रन्थ लिखे हैं और बह श्रावक के धर्माचार का भी पालन करते थे; किन्तु उस पर भी उन्होंने एक नहीं अनेक सफल सग्रामों में अपनी तलवार का जौहर जाहिर किया था। सचमुच जैनधर्म मनुष्य को पूर्ण स्वाधीनता का सन्देश सुनाता है। जैनाचार्य निःसड और स्वाधीन होकर वही धर्मोपदेश जनता को देते हैं जो जनकल्याणकारी हो । इसीलिए वह 'वसुधवकुटम्यकम्' कहे गये हैं । भीरता और अन्याय तो जैन मुनियों के निकट फटक भी नहीं सकता है।
प्रो० सा. के उक्त संग्रह में विशेष उल्लेखनीय दिगंबराचार्य श्री भावसेनवेद्य चक्रवर्ती, जो वादियों के लिये महाभयानक (Terror to disputant) थे, वह पोर बवराज के गुरु (Preceptor of Bava king) श्री भावनन्दि मुनि हैं।'
उपरान्त के शिलालेखों में वि० मुनि सन् १४७८ ई० में जिजी प्रदेश में दिगंबराचार्य श्री वीरसेन बहु प्रसिद्ध हुये थे। उन्होने लिंगायत प्रचारकों को समक्ष वाद में विजय पाकर धर्मोद्योत किया था और लोगों को पुनः जैन धर्म में दीक्षित किया था । कारकाल में राजा वीर पाण्डेय ने दिगवराचार्यों को प्राधय दिया था और उनके द्वारा सन् १४३२ में श्री गोम्मट-मति को प्रतिष्ठा कराई थी, जिसे उन्होंने स्थापित कराया था। एक ऐसी ही दिगंबर मुर्तिकी स्थापना देणर में सन् १६०४ में श्री तिम्मराज द्वारा की गई थी। उस समय भी दिगंबराचार्यों ने धर्माद्योत किया था। सन् १५३० के एक शिलालेख से प्रगट है कि श्री रंगनगर का शासक विधर्मी हो गया था, उसे जैन साध विद्यानन्दि ने पुनः जैन धर्म में दोक्षित किया था।
वि० मुनि श्री विद्यानन्दि इसी शिलालेख से यह भी प्रगट है कि 'इन मुनिराज ने नारायण पट्टन के राजा नंददेव की सभा में नंदनमल्ल भट को जीता. सातवेन्द्र राजा केशरी बर्मा की सभा में बाद में विजय पाकर 'वादी' पद पाया, सालुखदेव राजा की सभा में महान विजय पाई विलिगे के राजा नरहिस की सभा में जैनधर्म का माहात्म्य प्रगट किया, कारकल नगर के शासक भैरव राजा की सभा में जैन धर्म का प्रभाव विस्तारा राजा कृष्णराय की राजसभा में विजयी हुए, कोपन व अन्य तीथों पर मार उत्सव कराये, थवण वेलगोल के श्री गोम्मट स्वामी के चरणों के निकट प्रापने अमृत की वर्षा के समान योगाभ्यास सिद्धान्त मनियों को प्रगट किया, जिरसप्पा में प्रसिद्ध हये, उनकी आज्ञानुसार श्रीवरदेव राजा ने कल्याण पूजा कराई और वह संगी राजा और पद्मपुत्र कृष्णदेव से पूज्य थे ।" यह एक प्रतिभाशाली साधु थे और जिनके अनेक शिष्य दिगंबर मुनिगण थे।
सारांशत: दक्षिण भारत के पुरातत्व से वहां दिगंबर मुनियों का प्रभावशाली अस्तित्व एक प्राचीन काल से बराबर सिद्ध होता है । इस प्रकार भारत भर का पुरातत्व दिगंबर जैन मुनियों के महती उत्कर्ष का द्योतक है।
[२४] विदेशों में दिगम्बर मुनियों का विहार
India had pre-cmincntly been the cradle of culture and it was from this country that other natioos bad understood even the rudiments of cultruc. For example, they were told, the
१. बीर वर्ष ७ पृ० २---११ ३. बीर, व ५ पु० २४६ ५. मजस्मा०, पृ. ३२०-३२१
२. SS.IJ.pt, VI Pp61-62 ४. जौघ, पृ० ७० व DG
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