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पुण्य जनित लक्षमी पाय, मणि विमान आदिक सुखदाय । परमभोग उपभोग अपार, भुगत तृप्त होइ सुविचार ||१३६।। अष्टादश सागर की प्राव, नेत्रदोष वजित अन राव । सप्त धातु मल रहित जु सोय, साढ़े तीन हाथ तनु होय ॥१३७।। सहस अठारा वर्ष व्यतीत, लेइ सुधा आहार पुनीत । पक्ष अठारा पुरण जाय. स्वासा तन ते तब मुकलाय ।।१३८॥ तुर्यभूमि पर्यन्त विचार, द्रव्य चराचर जाने सार । ऋद्धि विक्रिया यह लों कही, क्षेत्र प्रभाव जानिये सही ॥१३६।। देश ग्राम प्रारण्य पहार, सागर द्वीप असंख्य मझार। इच्छा पूर्वक विहर सोई, देविन सों कीड़ा जुत होइ ।।१४०।। कबहू बीणादिक धुनि सुनै, कबहूँ गीत मनोहर गुन । कबहूं दिव्य देवनि के संग, देखहि सब प्रागार अभग ॥१४॥ कबई धर्मगोठ आदर, कबहूं केवलि पूजा करे। कबहूं श्री तीर्थकर तन, पंचकल्याणक उक्छव ठनै ।।१४२।। इत्यादिक शुभ कर्म संयोग, करै सुक्ख सागर में भोग । काल न जान्यो जातन देव, धर्मवंत गुण ज्ञान प्रभेव ।।१४३।।
गीतिका छन्व इहि भांति शुभ परिपाक करक, चक्रिपद पायो जब । सब सार सुन्दर सुक्ख निरूपम, भोग भुगत बह तब। अति बिमल चरित संजोग करके, देव पद तिन पाइयो। भज धर्म जिनवर मोक्षदायक, 'नवलशाह' प्रणामियौ ॥१४४॥
मुनिश्वरोंकी वन्दना की। वह बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने स्थान को लौटा । उस देव ने पुण्य से प्राप्त हुई लक्ष्मी, अप्सरा, और विमानादि विभूतियोंको ग्रहण कर इन्द्रिय-तृप्ति करने वाले महान भौगों का उपभोग करना प्रारम्भ किया।
उसे सप्त धातु वजित साढ़े तीन हाथ का दिव्य शरीर और अठारह सागर की प्रायु प्राप्त हुई । अठारह हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर वह देव कंठसे झरने वाले अमृत का पाहार करता था और नब मासके पश्चात् श्वासोछवास लेता था। उसे अवधिज्ञान से चौथे नरक तककी जानकारी और विक्रिया करने की शक्ति प्राप्त थी वह अपनी देवियों के साथ बन और पर्वतों पर क्रीड़ा करने में रत हुआ। कहीं बाजोंकी सुमधुर ध्वनि से महा मनोहर गीतों से, कही देवांगनाओं के शृगार दर्शन से, कभी धर्म चर्चा से कभी फेवला भगवान की पूजा अर्चा से, कभी तीर्थकरों के पंचकल्याणादि उत्सवों से प्रसन्नचित हो वह अपने समय को व्यतीत करने लगा।