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बसें मुनि जहाँ निर्जन थान, अटवी गिरि पर गुहा मसान | बिहरे ईर्जापथ पग देत, देश ग्राम संबोधन हेत ॥ १२१ ॥ पास मास उपास कराहि चरजा हित सुनि ग्रामहि जाहि । अन्तराय पाने पर नेह सुखहार भाव मे ।।१२२|| तहां धर्म उपदेश जु करें परभावना अंग विस्तरे । जिन शासन माहात्म्य अपार नर स्वरूप पूजन जगसार ॥ १२३॥ इने यादि जे परम आचार पाने संजम रहित विकार बहुत काल तप कीनी सार, अन्त समाधि धीर गुखकार ॥१.२४ ।। चार प्रकार तो चाहार, परमारथ पद प्रापतिकार अंगीकार कियो सन्यास घरी जोग प्रतिभा सम जाय ।। १२५ ।। जीत परिवह दो अरू बीस, क्षुधाप्यास आदिक मुनि ईस । तपकर कीने कर्मन होन, थाप धर्म को परगत क्रीन || १२६ ॥ आशयन आराधी चार मुक्तितनी साधक सुखकार तजे प्रान तनतं परवीन, जिनशासन घ्यायक गुण लीन ॥१२७॥
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दोहा
तह च प्रियमित्र मुनि शुभ उवोत सों सोय सहस्त्रार वर स्वर्ग में सूर्यप्रभसुर होष || १२५ ।।
चौपाई
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जन्म सुपाय सुरंग में सोइ, नय जोबन तन उपज्यो होइ त छिम अवधि ज्ञान को पाय जान्यो त फल पूरवा ।। १२६ ।। फल प्रतच्छ सब देखत गयो, धर्म मार्ग सौ रत बहु भयो । उठकें पहुंच्या जिन आगार, देखे रतन बिम्व सुखकार ।।१३०|| सन परिवार सहित सब देव करो जाय जिनवर की सेव अष्ट प्रकारी पूजा परी सब अनिष्ट तन ते पांरहरी ॥१३१॥ करें कल्पना मन में जोय, अनि वस्तु सो परगत होय । यही कल्पना द्रव्यमान की सुर धरतोत्र विधान ।। १३२ । चैत्यवृक्ष जिन गेह अभंग ते पूजे सूर निर्मल अंग केवलज्ञानी मुनि जिनराज, जहाँ जाय सुर समिति समाज बहुविध धर्मतत्व आचार, सुनं तहां श्रीमुख सुखकार
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यादि नन्दीश्वर थान, मध्यलोक वन्दे भगवान ॥१३३॥ शिर नवाय के बन्दन करें, बहु प्रकार पूजा बिस्तरं ।। १३४|| सब विभूति सो तह ते देव आर्या निज ग्राम सुख हे ||१३||
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उस चक्री ने मिथ्यात्वादि परिग्रहों का सर्वथा परित्याग कर मुक्ति रूपी लक्ष्मी प्रदान करने वाली महंत देव की कही गयी जिन दीक्षा धारण की। वह दीक्षा तीन लोकमें देव तियंच और मिथ्यात्वी मनुष्यों को दुर्लभ है। उस चक्रवर्ती के साथ संवेगादि गुणवाले हजारों राजा भी दीक्षित हुए उन महा मुमिने प्रमाद रहित होकर दो प्रकारका कठिन तप आरम्भ किया। उन्होंने उत्तर गुण और मूल गुणका उत्तम रीति से पालन किया। वे मन वचन कायकी गुप्तियों के माधव को रोकने लगे । निर्जन वन, पर्वत और गुफाओंों में वे ध्यान लगाते थे। उन्होंने अनेक देश नगर और ग्रामोंका बिहार आरम्भ किया ।
वे महामुनि भव्यजीवों के हितके लिये परम पावन जैन धर्मके तत्वों का उपदेश करने लगे। उनके प्रभावसे जनमत की प्रभावना सर्वत्र फैली। अन्तमें चारों प्रकार के आहारों का परित्याग कर उन्होंने मन, वचन काय योगों को रोक कर सन्यास धारण कर लिया। वे अपनी सामर्थ्य से क्षुधा तृषा बाईस परिषहों को प्रसन्न चित्त होकर सहने लगे उन हरिषेण मुनीश्वर ने चारों आराधनाओं का पालन कर प्रसन्न चित हो प्राणों का त्याग किया।
पश्चात् वे मुनि तपसे उपार्जन किये पुण्य के उदय से सहस्वार नाम के बारह स्वयं में सूर्यप्रभ नामक महान देव हुए। उत्पन्न होने के थोड़ी देर बाद ही वे यौवनावस्था को प्राप्त हो गये। उन्हें अवधिज्ञान से पूर्व जन्म के तप का प्रभाव संपूर्ण रूप से परिज्ञात हुआ वह देव अन्यन्त धर्मानुरागी हुया वह धर्म की प्राप्ति के लिये रत्नभयो जिन प्रतिमाओंों के दर्शन के लिये गया। वहां परिवार वर्ग के साथ उसने पापों को विनष्ट करने वाली जिनबिम्बों को पूजा की।
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वह सदा अपनी इच्छा त्योंके नीचे प्रतिष्ठित महंत भगवान की पूजा किया करता था। केवल यही नहीं वह दोनों लोकोंमें जा जा कर प्रकृत्रिम चैत्यालयों की पूजा करने लगा। एक दिन उसने नन्दीश्वर द्वीपमें जाकर तीर्थकर और १. तप और त्याग के प्रभाव से मैं सहस्त्रार नाम के बारहवें स्वर्ग में उत्तम विभूतियों का घारी सूर्यप्रभ नाम का महान्
देव
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हुप्रा ।