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तीव उपसर्ग सहकर धर्मध्यान से सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त हए। और प्रति दारुण नामक व्याघ्र मुनिहत्या के पाप से सातवें नरक में उत्पन्न हुआ।
पूर्व घातकी खण्ड के पश्चिम विदेह क्षेत्र में गन्विल नामक देश है उसके अयोध्या नगर में राजा ग्रहहास रहते थे, उनकी सुख देने वाली सुव्रता नाम की स्त्री थी। रत्नमाला का जीव उन दोनों के बीतमय नाम का पुत्र हुमा । और उसी राजा की दूसरी रानी जिनदत्ता के रत्नायुध का जीव विभीषण नाम का पुत्र हुआ। वे दोनों ही पुत्र बलभद्र तथा नारायण थे और दीर्घकाल तक विवाह किये बिना ही राजलक्ष्मी का यथायोग्य उपभोग करते रहे । अन्त में नारायण तो नरकायु का बंधकर शर्कराप्रभा में गया और बलभद्र अन्तिम समय में दीक्षा लेकर लान्तब स्वर्ग में उत्पन्न हुना। मैं वहो प्रादित्याभ नाम का देव हूं, मैंने स्नेहवश दुसरे नरक में जाकर वहाँ रहने वाले विभीषण को सम्बोधा था वह प्रतिबोध को प्राप्त हुआ और वहां से निकलकर इसी जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र की अयोध्या नगरी के राजा श्रीवर्मा की सुसीमा देवी के श्री धर्मा नाम का पुत्र हुआ। और बयस्क होने पर अनन्त नामक मुनिराज से संयम ग्रहण कर ब्रह्मस्वर्ग में प्राठ दिव्य गुणों से विभूषित देव हमा।
वज्ञायुध का जीब जो सर्वार्थ सिद्धि में अहमिन्द्र हुआ था वहां से आकर संजयन्त हुा । धोधर्मा का जीव-ब्रह्मस्वर्ग से आकर तु जयन्त हुआ था और निदान वांधकर मोह-कर्म के उदय से धरणोन्द्र हुआ। सत्यवोष का जोव सातवों पृथ्वी से निकल कर जघन्य ग्रायु का धारक सांप हुआ और फिर तीसरे नरक गया। वहां से निकलकर बस स्थावर रूप तियंच गति में भ्रमण करता रहा । एक बार भूतरमण नामक बन के मध्य में ऐरावत नदी के किनारे गोश्रृंग नामक तापस को शंखिका नामक स्त्री के मृगशृंग नाम का पुत्र हुआ। वह विरक्त होकर पचांग्नि तप कर रहा था कि इतने में वहां से दिव्य तिलक नगर का राजा अंगुभाल नाम का विद्याधर निकला उसे देखकर उस मूर्ख ने निदान बन्ध किया । अन्त में मरकर इसी भरतक्षेत्र के विजया पर्वत की उत्तर घेणी-सम्बन्धी गगनवल्भ नगर के राजा बज्रदंष्ट विद्याधर की विधुत्प्रभा रानी के विद्युदंष्ट्र नाम का पुत्र हुया। इसने पूर्व बैर के संस्कार से कर्मबंध कर चिरकाल तक दुःख पाये और आगे भी पावेगा।
जगार नर्ग के उश होकर यह जीव परिवर्तन करता रहता है । पिता पुत्र हो जाता है, पुत्र माता हो जाती है, माता भाई हो जाती है, भाई बहन हो जाता है और बहन नातो हो जाती है सो ठीक ही है क्योंकि इस संसार में बन्धजनों के सम्बन्ध की स्थिरता ही क्या है ? इस संसार में किसने किसका अपकार नहीं किया और किसने किसका उपकार नहीं किया? इसलिए बैर बांध कर पाप का बन्ध मत करो। हे नागराज! हे धरणेन्द्र ! बर छोड़ो और विद्युदंष्ट्र को भी छोड़ दो। इस प्रकार उस देव के वचन रूप अमृत की वर्षा से धरणेन्द्र बहुत ही संतुष्ट हुआ।
वह कहने लगा कि हे देव! तुम्हारे प्रसाद से ग्राज में समीचीन धर्म का श्रद्धान करता हूं किन्तु इस विद्यु दंष्ट्र ने जो यह पाप का आचरण किया है वह विद्या के बल से ही किया है इसलिए मैं इसकी तथा इसके बश की महाविद्या को छोन लेता हं' यह कहा । उसके वचन सुनकर बह देव' धरणेन्द्र से फिर कहने लगा कि मापको स्वयं नहीं तो मेरे अनुरोध से ही ऐसा नहीं करना चाहिए । धरणेन्द्र ने भी उस देव के वचन सुनकर कहा कि यदि ऐसा है तो इसके वंश के पुरुषों को महाविद्याएं सिद्ध नहीं होगी परन्तु इस वंश की स्त्रियां संजयन्त स्वामी के समीप महाविद्यानों को सिद्ध कर सकती हैं। यदि इन अपराधियों को इतनाभी दण्ड नहीं दिया जायेगा तो ये दुष्ट अहंकार से खोटी चेष्टाएं करने लगेंगे तथा आगे होने वाले मुनियों पर भो ऐसा उपद्रव करेंगे।
इस घटना से इस पर्वत पर के विद्याधर अत्यन्त लज्जित हुए थे इसलिए इसका नाम 'होमान' पर्वत है ऐसा कहकर उसने उस पर्वत पर अपने भाई संजयन्त मुनि की प्रतिमा बनवाई। धर्म और न्याय के अनुसार कहे हुए शान्त वचनों से विद्यददंष्ट को कालुष्य रहित किया और उस देव की पूजा कर अपने स्थान पर चला गया । वह देव अपनी आयु के अन्त में उत्तर मथरा नगरी के अनन्तवीर्य राजा और मेहमालिनी नाम की रानी के मेरुमाम का पुत्र हुमा। तथा धरणेन्द्र भी उसो राजा को अभिवती रानी के मन्दर नाम का पुत्र हमा। ये दोनों ही भाई शुक्र और बृहस्पति के समान थे तथा अत्यन्त निकट भव्य थे इसलिए विमलवाहन भगवान के पास जाकर उन्होंने अपने पूर्वभव' के सम्बन्ध सूने एवं दीक्षा लेकर उनके गणधर हो गये । अब यहां इसमें से प्रत्येक का नाम लेकर उनको गति और भवों के समूह का वर्णन करता हूं।
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