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पृथिवी में रहने वाले नारकी कापोत लेश्या से युक्त हैं। तीसरी पृथ्वी के ऊध्र्व भाग में रहने वाले कापोत लेश्या से और आधाभाग में रहने वाले नील लेश्या से सहित हैं। चौथी के ऊपर नीचे दोनों स्थानों पर तथा पांचवों पृथ्वी के ऊपरी भाग में नील लेण्या से युक्त हैं और अधोभाग में कृष्ण लेश्या से सहित हैं। छठवों पृथ्वी के ऊव भाग में कृष्ण लेश्या से, अधोभाग में परमकृष्ण लेश्या से और सातवीं पृथ्वी के ऊपर नीचे दोनों ही जगह रहने वाले परमकृष्ण लेश्या से संक्लिष्ट हैं। अर्थात सक्लेश को प्राप्त होते रहते हैं। प्रारम्भ की चार भूमियों में रहने वाले नारकी उष्ण स्पर्श से, पांचवीं भूमि में रहने बाले उष्ण और शीत दोनों स्पशों से तथा अन्त की दो भूमियों में रहने वाले केवल शोत स्पर्श से ही पोड़ित रहते हैं। प्रारम्भ का तीन पवियों में नारकियों के उत्पत्ति स्थान कुछ तो ऊट के प्राकार हैं। कुछ के भी कुछ कुस्थली मुद्गर और नाड़ो के आकार हैं। चौथी और पांचवीं पृथ्वी में नारकियों के जन्म स्थान अनेक तो गोके आकार हैं. प्र.क हाथी घोड़े आदि जन्तुओं तथा धोंकनी, नाव और कमलपूट के समान हैं। अन्तिम दो भूमियों में कितने ही खेत मे समान, बितने ही झालर और कटोरों के समान और कितने ही मयरों के आकार वाले हैं। व जन्मस्थान एक कोश, दो कोश, तीन कोवीर एक योजन विस्तार से सहित हैं। उनमें जो उत्कृष्ट स्थान है वे सौ योजन तक चौड़े कहे गये हैं। उन समस्त उत्पत्ति स्थानों की ऊंचाई अपने विस्तार से पंचगनी के ऐसा वस्तु स्वरूप को जानने वाले प्राचार्य जानते हैं। समस्त इन्द्रक विल तीन द्वारों से युक्त तथा तोन कोणों वाले हैं। इसके सिवाय जो श्रेणी वद्ध और प्रकोणक निगोद हैं उनमें कितने ही दो द्वार वाले दुकोने कितने ही तीन द्वार वाले तिकोने, कित सोपानद्वार वाले पंचकोने और कितने ही सात द्वार वाले सतकोने हैं। इनमें संख्यात योजन विस्तार वाले बिलों का अपना जघन्य अन्तर छ: कोश और उत्कृष्ट अन्तर बारह कोश है। एवं असंख्यात योजन विस्तार वाले बिलों का उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात योजन तथा जघन्य अन्तर सात हजार योजन है।
घमा नामक पहली पृथ्वी के उत्पत्ति स्थानों में उत्पन्न होने वाले नारको जीव जन्म काल में जब नीचे गिरते हैं. तब सात योजन सवा तीन कोश ऊपर आकाश में उछल कर पून: नीचे गिरते हैं। दूसरी वंशा पृथ्वी के निगोदों में जन्म लेने वाले नारकी पन्द्रह योजन अढ़ाई कोश प्रकाश में उछल कर नीचे गिरते हैं तीसरी मेधा पृथ्वी में जन्म लेने वाले जीव इकत्तीस योजन एक कोश प्रकाश में उछल कर नीचे गिरते हैं। चौथी अंजना पृथ्वी के निगोदों में जन्म लेने वाले जीव बासठ योजन दो कोश उछलकर नीचे गिरते हैं और तीव्र दुख से दु:खी होते हैं। पाँचबों पृथ्वी के निगोदों में जन्म लेने वाले नारकी प्रत्यन्त दुःखी हो एक सौ पच्चीस योजन आकाश में उछलकर नीचे गिरते हैं। छठवीं पृथ्वी में स्थित निगोदों में जन्म लेने वाले जीव
--- ---- असी क्षेत्र में उसके लघु बाहु का धनफल छह से गुणित और पंतीस से भाजित लोकप्रमाण, तथा यवक्षत्र का घनफल सात से विभक्त लोक प्रमाण है।
लघु बाहु का ध० फ० ३४३४६-३५ =५०रा० यत्र क्षेत्र का प० फ०-३४३.७...४६ रा० दूष्य मेष का समस्त घ० फ. ६८-|-१३७1-1-1 -४६ -३४३ रा० ।
इसको पैतीस से गुणा करने पर श्रेणी के घन प्रमाण कुल गिरिकट क्षेत्र का मिश्र घनफल होता है ।
इस उपयुक्त लोक क्षेत्र मे सात का भाग देकर लब्ध राशि को चार से गुणा करने पर सामान्य अधोलोक का घनफल होता है । आयत चतुरनक्षेत्र में भुजा श्रेणी प्रमाण सात राजु, कोटी चार राजु और इतना ही (सात राजु) वेध भी है। बहुत से यवों यस्त मुरज क्षेत्र में अवक्षेत्र और मुरजक्षेत्र दोनों ही नियम से होते हैं। उस ययमुरज क्षेत्र का घनफल चौदह से भावित और तीन से गुरिणत लोक प्रमाण तथा मुरज क्षेत्र का धनफल चौदह से भाजित और पांच से गुरिणत लोक प्रमाण है।
उदाहरण --(१) एक गिरकट का १० फ० रा ( होता है ।) -३५-.३४३ रा० समस्त गिरिकट का घनफाल । (२) सामान्य अधोलोक का धनफल ३४३७४४-१६६ रा आयात चतुरस्र अधोलोक में भुजा ७ रा० कोटि ४ रा० और वेष राज
७ -१९६ राज. प. फ० । (४) बमुरजाकार अघोल कि में प्रवक्षेत्र वा घाफ०३४३:१४४३--.७३३ रा० मरज क्षेत्र
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