________________
। ॥२२॥
उर लाय भविकाय महान
भव उपदेश करें बहु भेव पापी पाप बढ़ाव देव कामी काम सक्त अज्ञान, तिन्हें नो प्रभु ज्ञान कृपान ||२२|| कोई प्रभु तुम भक्ति बड़ाय, सेवं पादांबुज इन्द्रिय मोह व दुखदाय, ता व दुर्जय भारत रौद्र निदान और परीवह सुभट मोह महा अरि विजयीवान, घातिकर्म नाशन भगवान सुरनर आदि सबै जगजीव, होहि काल सन्मुख जु सदीव प्रनम सब सुखदायक स्वामि प्रतमो गुणवारिधि विनामि अनमी तुम निस्पृह जिनदेव अंग भोग सुख कीनी छेव
घोडशकारण भावन भाय, जिन्हें करल अपने सम राय ॥२३॥ तुम संवेग वचन निर्दोष, अमृत वत पो वित पोष ||२४|| क्षमाभाव की फौज बड़ाय, जोते सुभट महाभट राम ||२५|| कीर धीर प्रभु तुम अविकार भव्यजीव के तारणहार ॥ २६ ॥
2
।
तप कर हनी ताहि जिनदेव, भव्य शिवालय करता एव ।।२७।। प्रथम मुक्ति कामिनी कंत, जनत प्रसिद्ध उदित रहंत ||२६|| अरु सस्पृह प्रनम कर सेव मुक्ति श्री साधक सुख एवं ||२४||
1
प्रभुके दोनों जानु विस्तीर्ण और पुष्ट थे। सद्यपि वे कोमल थे, फिर भी व्युपसर्गादि तप करने में उनकी समानता नहीं की जा सकती सी । भला उस प्रभु के चरण कमलों की तुलना किसने की जा सकती है, जिनकी सेवा इन्द्र रणेन्द्र मावि सभी देव किया करते हैं । इस प्रकार प्रभु की अपूर्व शोभा चोटी से नखतक थी । उसका वर्णन करना असाध्य है। तीन जगत में रहने वाले दिव्य प्रकाशमान पवित्र और सुगन्धित परमाणुओं से ब्रह्मा व कर्म ने उस प्रभु का अद्वितीय शरीर बनाया है । उस शरीरका पहला वधनाराच सहनन था ।
प्रभु के शरीर में मद खेद, दोष रामादिक तथा वातादिक तीन दोषों से उत्पन्न किसी समय भी रोग नहीं होते थे । उनकी वाणी समस्त संसार को प्रिय थी। वह सबको सत्य और शुभ मार्ग दिखाने वाली धर्म माता के समान जो दूसरे खोटे मार्ग को व्यक्त करने वाली नहीं थी दिव्य शरीर को पाकर वे प्रभु ऐसे सुशोभित हुए जैसे धर्मात्माओं को पाकर धर्मादिगुण सुशोभित होते हैं-
श्रीवृक्ष, शंख पस्वस्तिक, अंकुश, तोरण, चमर श्वेतछत्र ध्वजा सिंहासन दो मछलियां दो घड़े समुद्र, कथा, चक, तालाब, विमान, नागभवन, पुरुष स्त्री का जोड़ा, बड़ा भारी सिंह तोमर, गंगा, इन्द्र, सुमेरु गोपुर, पुर, चन्द्रमा सूर्य घोड़ा वीजना, मृदंग, सर्प, माला, वीणा बांसुरी, रेश्मीवस्त्र देदीप्यमान कुण्डल विचित्र आभूषण, फल सहित बगीचा, पके हुए अनाजबाला खेत हीरा रत्न, बड़ा दीपक, पृथ्वी, लक्ष्मी, सरस्वती, सुवर्ण, कल्प वेल, चूडारत्न, महानिधि, गाय, बैल, जामुन का वृक्ष, पक्षिराज, सिद्धार्थ वृक्ष, महल, नक्षत्र ग्रह प्रतिहार्य यादि दिव्य एक सौ साठ लक्षणों से तथा नौ सी सर्व श्रेष्ठ व्यंजनों से विचित्र आभूषणों से और माताओं से विभृका स्वभाव सुन्दर दिव्य प्रौदारिक शरीर अत्यन्त सुशोभित हुआ।
विशेष वर्णन ही क्या किया जाय, संसार में जितनी भी शुभ लक्षण रूप सम्पदा और प्रिय वचन विवेकादि गुण हैं, सब पुण्य कर्मों के उदय से तीर्थंकर भगवान में स्वतः अधिष्ठित स्वामी उनको सेवा में सदा रत रहते थे। वे महावीर कुमार सिद्धि के लिये मन वचन कायकी शुद्धि से प्रतिचार सहित भक्ति पूर्वक गृहस्थों के बारह व्रतों का नित्य पालन करते थे। वे सर्वदा शुभ ध्यान की मोर विचार किया करते थे । पुण्य के शुभोदय से प्राप्त हुए सुखों का उपभोग करते हुए कुमार आनन्द पूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे ।
पति मन्दरागी महाप्रभुने तीस वर्षका समय क्षणकाल के समान व्यतीत किया। एक बार ऐसा हुआ कि अच्छे होनहार के कारण चारित्र मोह कर्म के क्षयोपशम से उन्हें स्वतः अपने पूर्व के करोड़ों जन्मों का संसार भ्रमण ज्ञात हो गया। वे इस प्रकार की पूर्व घटित घटनाओं पर विचार कर बड़े ही क्षुब्ध हुए । उन्हें तत्काल हो वैराग्य उत्पन्न हो माया ।
विचार करने लगे कि, मोहरूपी महान शत्रु का सर्वनाश करने के लिये रस्नश्य रूप तप का पालन श्रेयस्कर है। उन्होंने सोवा-चारित्र के प्रभाव में मेरा इतने दिन का समय व्यर्थ ही व्यतीत हो गया जो अब प्राप्त नहीं हो सकता । पूर्वकाल में ऋषभादि जितने भी तीर्थकर हो गये हैं, उनकी भायु बहुत अधिक थी, इसलिए वे सब कुछ सकने में समर्थ हुए थे। पर हम सरी थोड़ी सी प्रायु वाले सांसारिक कार्य कुछ भी नहीं कर सकते। वे नेमिनाथादि तीर्थकर पन्य हैं, जिन्होंने अपने जीवन की अवधि थोड़ी सी समझ कर अल्पायु में ही मोक्ष के उद्देश्य से तपोवन की ओर प्रस्थान किया था। अतः संसार हित चाहनेवाले थोड़ी आयु वाले व्यक्तियों को संगमके बिना एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए।
३६६