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प्रनमौ अद्भुत वीरज धार, ब्रह्मचारि तुम बालकुमार । प्रनमौं विरकत राजभंडार, सदा शाश्वती पद विस्तार ।।३।। कृपासिन्ध तुम वीर जिनेश, जूग कर जोर नमी जोगेशप्रतमी तीन लोक के मित्त, वधिसागर बन्दौं धर चित्त ॥३१॥ बहु प्रकार अस्तवन जिनेश, जन्म जन्म मुहि मिल्यौ महेश । तुम दातनि में दाता एव, तप चारित्र सिद्ध कर देव ।।३२।। इत्यादिक प्रभु शक्ति अपार, को बुध भक्ति कर लहि पार । बालकुमार धर बैराग आति मोह मद हनि बड़भाग ।।३३।।
दोहा यह विधि बहु प्रस्तुति करी, लौकान्तिक वरदेव । विविध प्रार्थना प्रकट कर, निज नियोग स्वयमेव ।।३४।। परम पुण्यको उदित करि, थुति जुन पूजा कोन । चरण कमल जुग प्रणमिकर, गये स्वर्ग परवीन ॥३५।।
वस्तुत:-- बड़े ही मूर्ख हैं जो थोड़ी प्रायु पाकर तपस्या के बिना अपने अमुल्य समय को नष्ट कर देते हैं। वे यहां भी दुःख भोगते हैं और नरकादि की यातनायें भी। मैं ज्ञानी होते हए समय के अभाव में एक अज्ञानीको भांति भटक रहा है। अब गृहस्थाश्रम में रहकर समय व्यतीत करना उपयुक्त नहीं कहा जा सकता। वे तीनों ज्ञान ही किस कामके, जिनके द्वारा आत्माको और कर्मों को अलग-अलग न किया जाय तथा मोक्षरूपी लक्ष्मी की उपासना न की जाय । ज्ञान प्राप्त करने का उत्तम फल उन्हीं महापुरुषों को प्राप्त है, जो निष्पाप तपका. पाचरण करते हैं। दूसरों का ज्ञानाभ्यासरूप क्लेश करना नितान्तनिष्फल है।
उस व्यक्ति के नेत्र निष्फल हैं जो नेत्र हीते हए भी अन्धकप में गिरता है, वही दशा ज्ञानी पुरूपों की है जो ज्ञान होते हए भी मोहरूपी कूप में बंधे रहते हैं । वस्तुत: प्रज्ञान (अनजान) में किये गये पाप से तो ज्ञान प्राप्त होने पर छुटवारा भी मिल जाता है। पर ज्ञानी (जानकर) का पाप से मुक्त होना बड़ा ही दृष्कर होता है। अतएव ज्ञानी पुरुषों को मोहादिक निन्दनीय कों के द्वारा किसी प्रकार का पाप नहीं करना चाहिये । इसका कारण यह है कि मोह से राग द्वेष उत्पन्न होता है। उस पाप के फलस्वरूप जीव को बहत दिनों तक दुर्गतियों में भटकना पड़ता है। वह भटकना भी साधारण नहीं अनन्त काल तकका, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
ऐसा समझ कर ज्ञानियों को चाहिये कि वे मोह रूपी शवों को वैराग रूपी तलवार से मार दें। कारण यह मोह ही सारे अनर्थोकी जड़ है। पर यह स्मरण रहे कि यह मोह गृहस्थी द्वारा नहीं मारा जा सकता। इसलिये पापका बन्धन गृह तो त्यागना पड़ेगा। गृह-बन्धन बाल्यावस्था में तथा यौवनावस्था में सारे अनर्थ उत्पन्न करता रहता है। अतः धीर बीर पुरुष मोक्षको प्राप्ति के उद्देश्य से गह-बन्धन का सर्वथा परित्याग कर देते हैं। वे संसार में पूज्य और महापुरुष हैं जो योवनावस्था में दुर्जेय कामदेवको भी परास्त करने में समर्थ होते हैं।
यौवनावस्था रूप राजाने कामदेव और पंचेन्द्रिय आदि चारों जीवनको विकृत करने के लिये भेजा है। पर जब यौवन की अवस्था मन्द हो जाती है, तब उसके साथ, साथ बढ़ापे रूप फांसीसे बंधे हए वे कामदेवादि भी ढीले पड़ जाते हैं । अतएव यह उचित होगा कि मैं यौवनावस्था में ही उग्रतप आरम्भ कर दं, जिससे कामदेव और पंचेन्द्रिय विषय रूपी शत्रुओं का सर्वनाश हो। इस प्रकारकी चिन्ता कर ये महा वद्धिमान महावीर स्वामी अपने चित्त को निर्मल कर राज्य भोगादिकों से विरक्त हुए और मोक्ष-साधनमें संलग्न हो गये।
महावीर प्रभु के चित्त में ऐसी भावना उत्पन्न हो गयी कि उन्होंने घर को बन्दीगह समझ कर राज्य लक्ष्मी के साथ उसका परित्याग कर दिया। वे तपोबन में जाने के लिये, उद्यत हए । समय पाकर उन्होंने सूखका तिलाजाल द सुखका भण्डार वैराग्य प्राप्त कर लिया । ऐसे बाल ब्रह्मचारी महावीर प्रभु मुझे गुण-सम्पदा प्रदान वर ।
हन्ता शत्रु स्वकर्म के, वीर प्रात्मरस लीन । जगद्वंद्य पद्य-कंज में नमें भवितवश दीन । जिन्होंने कर्मरूपी शत्रुषों का हनन किया, जो सदा पात्मानुभव करते हैं और जगद्वंद्य है, उन वीर भगवान की यह दीन भक्तिवश वन्दना करता है।
पिछले अध्यायमें यह बताया जा चुका है कि, महावीर प्रभ को एकाएक वैराग्य उत्पन्न हो गया और उन्हें सांसारिक भोगों से एकदम विरक्ति हो गयी। वे अपने वैराग्य में वज्ञि होनेके उद्देश्यसे बारह भावनाओं का चिन्तन करने लगे।
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