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चौपाई तब सब चनरनिकायी देव, घंटा आदि भयो रव भेव । जान्यौ संजम उत्सव सबै, निज निज वाहन साजे तबै ॥३६]] सजक सकल विभति निदान, पाये कूडलपुर जिन थान । भक्त हिये उत्साह अनेक, रुंध्यौ पुर वन मारग सेक ।।३७॥ छाय रह्यौ नभ सकल विमान, देखे जिन गुण परम निधान । प्रभु को सिंहासन बैठार, सब सुरपति हिय हर्ष विचार ॥३८॥ हेम कुम्भ उन्नत गंभीर, भर ल्याए क्षीरोदधि नीर । प्रभुको तहं अभिषेक करायी, अरु पूजा कीनी समुदाय ।।३।। गीत नृत्य बादित्र बजाय, जय जय शब्द कर्यो अधिकाय । तीन लोक भूषण जिनराय, कंठमाल सुरपति पहिराय ॥४०॥ मात पिता बांधव परिवार, जान्यौ जिम वैराग्य विचार । महामोह उर कीनों धनौ, मानों वज्रपात तन हनौं ॥४१॥ कहिक मधर वचन जिनदेव, संबोध सब परिजन एवं ! जो वैराग्यजनित है धर्म, सो विधि भेद बताया पर्म ॥४२॥ तजि बांधव परिजन समुदाय, गृह लक्षमी नहि राज्य सुहाय । उरमें प्रति संवेग बढ़ाय, दीक्षा लौ लागी जिनराम' ||४३।।
अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, भारब, संवर, निर्जरा, लोक, बोधि दुर्लभ, और धर्मानुप्रेक्षा इस प्रकार की बारह भावनायें हैं, जो वैराग्यको पूष्ट करती है।
अनित्य भावना–तीनों लोकोंमें आयु यमराज से घिरी हुई है। यौवन बृद्धावस्था के मुंह में है । यह शरीर रोगरूपी
१. इस प्रकार बारह भावना भाने से श्री वरमान महावीर को संसारी पदार्थों से रही-सही मोह-ममता नष्ट हो गई। संसार उन्हें महादुःखों की खान और धोख को टट्टी दिखाई देन नगः । उन्होंने अपने माता-पिता से प्रार्थना की कि जब तक कर्मरुपी ईधन तप रूपी अनि में भम्म नहीं होगा, आत्मिक शान्ति स्पो रसायन की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिये तप करने के लिये जिन दीक्षा ग्रहण करने की आज्ञा ६.जि.यं । पिताजी ने कहा-भत्री धर्मः परमोधर्मः" राज्य करना ही क्षत्रियो का धर्म है । वीर स्वामी ने उत्तर में कहा-"छ: स्वप्ट का राज्य करने वाले भरत सम्राट आज कहाँ है ?" और भरत सम्राट पर विजय प्राप्त करने वाले श्री बाहुबलि योद्धा आज कहाँ ? इन्द्र को जीतने वाला, कैलाश पर्वत को हिला देने वाला म्लेच्छों और राक्षसों के अधिपति रावण आज कहाँ ? और ऐसे महायोसा रावण को भी जीतने वाले श्री रामचन्द्र जी बाज कहाँ । मै संसारी उत्तमोत्तम वस्तुओं का घारी नारायण हुआ। छ:खण्डों का स्वामी चक्रवर्ती हुआ। परतु आवागमन से मुक्त न हो सका। राभ्य सुख तो क्षण भर का है । पृथ्वी पर हरी घास पर ओस के समान हसिक है।" पिता जी ने कहा माता को तुम्हारा चित्तमा मोह है ? वीर स्वामी ने उत्तर दिया--"मैंने अनादि काल से अनन्तानन्त जन्म धारे, अनेक जन्म के मेरे अनेक माता-पिता थे, वे आज कहाँ ? संसार में कोई ऐसा जीव नहीं है, कि जिस किसी से किसी जन्म में कुछ न कुछ सम्बन्ध न रहा हो।” माता त्रिशला देवी ने कहा कि वन में रीछ, भगेरे, साप, दोर आदि अनेक भयानक पशु निवास करते है । कोमल शरीर होने के कारण भूख, प्यास, सर्दी, गी प्रादि परिषहों का सहन करना भी बड़ा खुर्लभ है। बोर स्वामी ने बड़े विनयपूर्वक माता जी से निवेदन किया-"भाप तो मुरगों की खान हो, भली भांति जानती हो कि आत्मा मेरी है, शरीर मेग नहीं आत्मा के निकल जाने पर यह यहीं पड़ा रह जाता है, तो इसका क्या मोह ? जिस प्रकार नदियों से सागर और ईन्धन से अग्नि कभी तप्त नहीं होती, उसी प्रकार संसारी सुखों से लालची जीव का हृदय कभी तृप्त नहीं होता? सम्वा सुख तो मोक्ष में है। मोक्ष की प्राप्ति मुनि-धर्म के बिना नहीं। स्वर्य के देव भी मुगि धर्म पालन करने के लिये मनुष्य जन्म की अभिलाषा करते हैं । मेरे याद है, जब मैं स्वर्ग में था, तो दूसरे सम्यकदष्टि देवों के समान मैंने भी प्रतिज्ञा की थी कि यदि मनुष्य जन्म मिला तो अवदय मुनि-धर्म ग्रहण करूंगा । कृपा करके मुझे अपने वचन पूरे करने का अबसर दीजिये।"
अपने अवधिधाम से श्री वर्द्धमान महावीर का वैराय जान, ब्रहलोक के बाल ब्रह्मचारी और महान धमरिमा लोकातिदेव भगवान महावीर के वैराग्य की प्रदासा करने के लिए स्वर्ग लोक से कुडग्राम आये और बीर रवामी को भनितपूर्वक नमस्कार कर, उनकी इस प्रकार स्तुति की :
"तप से महा गन्दा शरीर परम पवित्र हो जाता है, तप मनुष्य जन्म का तस्व है, घन्य है आपने संसार को असार जाना। वह कौन सा शुभ दिन होगा कि हम स्वर्ग के देव मनुष्य जन्म धार कर आपके समान संसार को त्याग कर तप करेंगे।"
कीर स्वामी के माता-पिता को भी स्तुति करके लोकांतिदेवों ने उनसे कहा कि आपका बुद्धिमान पुत्र तारनतरण जहाज है, जो स्वयं इस दुःख भरे भयसागर से पार होगा और दूसरों को धर्म का सच्चा मार्ग दिखाकर पार उतारेगा । मापके लिए आजसे बढ़कर और कौनसा शभ दिन होगा? धन्य है ऐसे भाग्यशाली माता-पिता को जिनके सुपुत्र ने पापरूपी अन्धकार के नाश करने का दृढ़ निश्चय कर लिया है। देवों के इस प्रकार समझाने से उनका मोहान्धकार नष्ट हो गया और उन्होंने बड़े हर्ष के साथ वीर स्वामी को जिन-दीक्षा लेने की आज्ञा दे दी।
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