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तब सुरेश एक शिविका रची, हेममयो रतनिन कर खचो। सूर्य चन्द्र छबि देख छिपाय, तप लक्ष्मी को व्याहन जाय ।।४४|| प्रथम लही शिविका भुवि राय, सात पेंड़ अति हर्ष बढ़ाय। पुन खगपति-लिय साता पंड़, नभ गतिधर पुनि निज मैंड ।।४५।। अपने अपने कंधाधार, लीनी सुरपति हर्ष विचार । धर्म राग रस सबनि बढ़ाय, जय जयकार करै अधिकाय ।।४६।। पासन जुम्मक वाही जान, भवनपती दश भेद बखान । दशहू दिशते हरष बढ़ाय, करें पहुप वरषा समुदाय ।।४।। मन्द पवन सुरगंध समेत, वातकुमार कर निज हेत । शक सब आनन्द बढ़ाय, बहु देवो सुरगण समुदाय ॥४८॥ कोलाहल उत्सव अति करै, भक्ति भाव हिरदै अादरै । पुरते नभ वारिधि लौं सोय, रूथ्यो नभ मारग घन होय ।।४।। दुन्दुभि नगर बजे अधिकार, सब विधि बर्तन लहै न पार । सुर नर्तक नाटकगति करें, अति विचित्र उपमा मन हरे ॥५०॥
सर्पका बिल है-और इन्द्रिय सुख क्षणभंगुर हैं । अर्थात् जो कुछ भी सुन्दर से सुन्दर वस्तुए दृष्टिगोचर हो रही हैं, ये सभी कमों से उत्पन्न हुई हैं और समय पाने पर स्वतः नष्ट हो जायेगी । जो करोड़ों जन्मों से भी दुर्लभ मनुष्यायु मृत्युसे क्षण भरमें ही नष्ट हो जाती हैं तो अन्य वस्तुओं के स्थिर रहने की कल्पना हो कैसे की जा सकती है, सबका सर्वनाश करने वाला यमराज जन्मसे लेकर समयादि के हिसाब से जोव को अपने पास घसोट ले जाता है। योवन धर्म सुखादि होने से सज्जनों का माननीय है, भी व्याधि रोग मौत से घिर कर क्षण भर में बादलों के समान नष्ट हो जाता है। कारण काई जवान पुरुष रोगरूपो अग्नि से जलते हैं और कोई बंदीखाने में रखे गये अनेक प्रकार के दुःख भोगते हैं।
नरकादि का कारण निन्दनीय कार्य भी चंचल और सारहीन है । चक्रवर्तीको राज्य लक्ष्मी आदि भी बादल को छाया के समान विनाशदान और चंचल हैं, तब दूसरोकी स्थिरिता हो क्या हो सकती है ? इस प्रकार संसारको सारी वस्तुएं क्षणभंगुर हैं । प्रतः बुद्धिमानोंको उचित है कि वे सर्वदा मोक्षका साधन किया करें ।
अशरण भावना-जिस प्रकार निर्जन वनमें सिंहके पंजे में आये हुए बालक को कोई शरण नहीं होती, उसी प्रकार संसार के प्राणी को रोग और मृत्यु से रक्षा करने वाला कोई नहीं। जिस प्राणी को यमराज ले जाने के लिये प्रस्तुत होता है, उसे इन्द्र, चक्रवती, देव और विद्याधर तक भी क्षण भरके लिये नहीं बना सकते। वस्तुतः जब काल समक्ष प्रा जाता है, तब मंत्रादिक और सारी औषधियां व्यर्थ हो जाती है। केवल जगत में भव्योंकी रक्षा करने वाले जिन भगवान, साधु और कवली द्वारा उपदेश किया हुया धर्म है । इसके अतिरिक्त तप, दान, जिन-पूजा जप रत्नत्रय आदि भी अनिष्ट और पापांके विध्वंसक हैं। जो बुद्धिमान संसार से भयभीत होकर प्रहंत आदिकी शरण में जाते हैं, वे शीघ्र ही उनके गुणोंकी प्राप्तिकर उनके सदृश परमात्मा हो जाते हैं।
किन्तु जो मूर्ख चण्डी क्षेत्रपाल प्रादि मिथ्यात्वी देवोंकी शरण ग्रहण करते हैं, वे नरक रूपी समुद्र में पतित होते हैं। ऐसा विचार कर बुद्धिमानों को पंच परमेष्ठी की तथा तप धर्मादिको शरण ग्रहण करनी चाहिये: जो सर्वथा दुःखों को विनष्ट करने वाली है। दूसरी शरण रत्नत्रयादि के द्वारा मोक्ष को ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि बद्द अनंत गुणों से युक्त है और अनन्त सुख का समुद्र है।
संसारानप्रक्षा-यह संसार अनादि और अनन्त है। इसमें अभव्यों को जो सुख हो सुख दृष्टिगोचर होते हैं, किन्तु ज्ञानो जीव सदा इसे दुःख रूप समझते हैं। कारण अज्ञानो जन विषय को हो सुख मानते हैं, पर ज्ञानो उसे नरकादि का कारण समझ अधिक दुःख रूप मानते हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव से घिरे हुए प्राणी रत्नत्रय रूपी बाण के बिना अधिक काल तक भटकते रहते हैं और भविष्य में भी भटकते रहेंगे। संसार में ऐसे कर्म और ऐसी गतियां न होंगी, जिनमें इस जीवको भटकना न पड़ा होयह द्रव्य संसार (भ्रमण) है । लोकाकाश का ऐसा कोई प्रदेश नहीं बना है, जिसमें इस जोव ने जन्म न ग्रहण किया हो, और मत्य प्राप्त न किया हो । यह काल संसार है। नरकादि चार गतियों में ऐसी योनि नहीं बची, जिसे इस जीव ने नहीं ग्रहण किया हो पौर न छोडा हो--ये संसारी जीव मिथ्यात्वादि सत्तावन दुष्ट कारणों से भ्रमण करते हुए पाप कर्मों को सदा उपार्जन करते हैं-वह भाव संसार है।
धर्मके अभाव में ही संसार के प्राणियों को भव, भव में भटकना पड़ता है। अतएब भव्यों को बड़े यत्न पूर्वक धर्म का पालन करना चाहिये । इसी धर्म के पालनसे अनन्त सुख रूप मोक्ष को प्राप्ति होता है।
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