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सकता है । मालूम पड़ता है कि म० बुद्ध ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। इस ही कारण वह उसके द्वारा पूर्णता को प्राप्त न कर सके । परन्तु तो भी उनका यह प्रयास बिल्कुल विफल नहीं गया था, हम यह देख चुके हैं। यदि म० बुद्ध ने इस मोर ध्यान दिया होता तो वस्तुतः हम उनसे और कुछ अधिक ही उत्तम वस्तु पाते । भगवान महावीर ने एक नियमित रीति से साधु जीवन का अभ्यास किया था और व्यवस्थित ढ़ग से तपश्चरण का पालन किया था । इसीलिए वह पूर्ण कार्यकारी हवा, यह हम प्रागे देखगे। वैसे भगवान महावीर ने भी ऐसे थोथे तपश्चरण को बुरा बतलाया है। उनके निकट वह केवल कार्यक्लेश और बालकों का तप है। परन्तु वह जानते थे कि ज्ञानमय अवस्था के साथ-साथ परमपद प्राप्ति के लिए तपश्चरण भी परमावश्यक है। उनके निकट तपश्चर्या वह कोमियाई क्रिया थी जो प्रात्मा में से कर्म मल को दूर करके उसे बिल्कुल शुद्ध बना देती है। यह तपश्चर्या संसारी मनुष्य को पहले-पहले तो अवश्य ही जरा कठिन और नागवार मालम पड़ती है, परन्तु जहाँ मनुष्य को सम्यक् धद्धान हुआ वहां लत्काल ही इसकी आवश्यकता नजर पड़ जाती है और फिर इसके पालन में एक अपूर्व प्रानन्द का स्वाद मिलता है । वस्तुत: मेहनत का फल भी मीठा होता है । तपश्चरण एक परमोत्कृष्ट प्रकार की मेहनत है, जिसका फल भी परमोत्कृष्ट है । अतएव पवित्र साधु जीवन का यह एक भषण है। प्रत्येक मत प्रवर्तक को इस भूषण को किसी न किसी रूप में धारण अवश्य करना पड़ता है। म० बुद्ध ने अवश्य इसका विरोध किया परन्तु अन्ततः उनको भी इसे किंचित न्युन रूप में स्वीकार करना ही पड़ा।
इस तरह म० बुद्ध की ज्ञान प्राप्ति के तो दर्शन कर लिए, अब पाठकगण पाइये, भगवान महावीर के ज्ञान प्राप्ति के दिच्य अवसर का भी दिग्दर्शन कर लें। भगवान महावीर ने व्यवस्थित रीत्या श्रावक अवस्था से ही संयम का अभ्यास करके मुनि पद को धारण किया था । मुनि अवस्था में भी पहले उन्होंने ढाई दिन (बेला) का उपवास किया था और फिर एक वर्ष के तपश्चरण को परीषह को उन्होंने सहन किया था । इस प्रकार क्रमवार प्रात्म उन्नति करते हुए वे इस १२ वर्ष के तपश्चरण को पूर्ण करके विचर रहे थे, कि वैशाख सुदी दशमी के दिन वे जम्भक ग्राम के बाहर ऋजकूला नदी के बामतट पर एक साल वृक्ष के नीचे विराजमान हुए तिष्ठते थे । ज्ञान-ध्यान में लीन थे। समय मध्यान्ह का हो गया था । सूर्य अपने प्रचन्ड प्रकाश से तनिक स्खलित हो चले थे। उसी समय इन भगवान महावीर को दिव्य केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । मानो इस परम प्रखर प्रात्म प्रकाश का दिव्य उदय जानकर ही उस समय दिनकर महराज का भौतिक प्रकाश फीका पड़ चला था।
भगवान महावीर उस सुवर्ण अवसर पर केवलज्ञानी हो गये, साक्षात् तीर्थकर बन गये। तीनों लोक की घराचर वस्तूय उनके ज्ञान नेत्र में भलकने लगीं। वे सर्वज्ञ हो गये। पिलोकवंदनीय बन गये । ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों का उनके प्रभाव हो गया, इसीलिये संसार में ही साक्षात् परमात्मा हो गये—सयोग केवली बन गये। उस समय से एक क्षण के लिये भी उनका ज्ञान मन्द न पड़ा । वह ज्यों का त्यों प्रकाशमान रहा और यूं ही हमेशा रहेगा। यही दिव्य जीवन है। परमोत्कृष्ट प्रकाश है । साक्षात् ज्ञान, शांति और सुख है।
जिस समय भगवान महावीर सर्वज्ञ हए, उस समय संसार में अलौकिक घटनायें घटित होने लगों, जिससे भगवान को सर्वज्ञता का लाभ हुआ जानकर देवलोक के इन्द्र और देवतागण वहां उनके निकट प्रानन्दोत्सव मनाने आये थे। भगवान को वन्दना उन्होंने अनेक प्रकार की थी। हम भी उस दिव्य अवसर का स्मरण करके मन, वचन, काय की विशुद्धता से भगवान के पवित्र ज्ञानवर्द्धक चरणों में नत मस्तक होते हैं।
उसी समय इन्द्र ने भगवान का सभाभवन-समवशरण रच दिया जिनकी विभूति का वर्णन जैन ग्रन्थों में खूब मिलता है।' समवशरण की गधी कुटीमें अन्तरिक्ष विराजमान होकर भगवान महावीर सर्व जीवों को समान रीति से कल्याणकारी उपदेश देते थे। इस समवशरण में १२ कोठे थे, जिनमें ऋषिगण के उपरान्त स्त्रियों को पासन मिलता था । इसके बाद पुरुष और तिर्यचों के लिए स्थान नियत था। इस रीति से भगवान का उपदेश तिपंचों तक को होता था । वस्तुतः भगवान के दिव्य उपदेश से पशुओं को अपने प्राणों का भय चला गया था। वे सुरक्षित और अभय हो गये थे। इस ही देवी समवशरण सहित भगवान सर्वत्र विहार करते थे। इस बिहार में उनके साथ चतुनिकाय संघ और मुख्य गणधर भी रहते थे। भगवान के सर्व प्रथम शिष्य और मस्य गणधर वेद पारांगत प्रख्यात ब्राह्मण इन्द्रभूति गौतम थे । भगवान महावीर ने सनातन सत्य का उपदेश सर्व प्रथम इन्हीं को दिया था। इनको मनःपर्यय ज्ञान की प्राप्ति हुई थी और इन्होंने ही मुख्य गणधर के पद पर विराजमान होकर भगवान की द्वादशांग वाणी की रचना की थी।
भगवान महावीर का उपदेश सनातन यथार्थ सत्य के सिवा और कुछ न था । उन्होंने अपनी सर्वज्ञता द्वारा सर्व
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