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यावज्जीवं विहितशुभदं देवसेवादिकार्य.. तीर्थ गत्वा बहुरुचितया वंदनाया जिनेशाम् । यावत्पुण्यं कथमपि मया संचितं तच्च सर्व ,
यायाच्छी जिनवर ! मम प्राणनिर्याणकाले ॥१२॥ बचपन से अब तक जीवन में, जिनभक्ति दानादि किया, पंचकल्याणक तीर्थों पर जा जिनवंदन स्तवन किया। जितना भी सब पुण्य हुआ वह, एकत्रित मम जीवन में, मेरे प्राण प्रयाण समय प्रभु यह सब पुण्य सहायि बने ।।१२।।
(धीछंधः )
जन्ममृतिभ्यां विविधकुरोगः, अस्तशरीरी कुमृति-निमित्तात् । प्राप्य कदाचिज्जिन ! तव धर्म,
अस्तु समाधिर्मम मृतिकाले ॥१३॥ जन्म मरण से तथा विविध, रोगों से पीडित भववन में, कमरण के ही कारण जिनवर ! दु:खी हुमा तनुधर घर में। प्राज कदाचित् दुर्लभता से जिन ! तव धर्म को पाया है, अंत समय में श्रेष्ठ समाधि होवे यही याचना है ॥१३॥
अंतिमकाले विषयकषायाः, रोगजपीडा मम न भवेयुः। प्रस्तु न कंठो जिन ! मम कंठः,
नाम सुजपतो भवतु सुमृत्युः ॥१४॥ हे प्रभु ! मेरे मरण समय में मोह कषायें प्रगट न हों, रोगजनित पीड़ा नहिं होवे मूर्छा पाशा भी नहि हो । प्राण निकलते समय वीर ! मम कंठ अकुंठित बना रहे, महा मंत्र को जपते जपते प्रभु समाधि उत्तम होवे ॥१४॥
घोर निगोदे व्यसन समुद्र, श्वभ्रगती भीकरतमन्दुःखे । कूरकुतिर्यड्नरसुरमध्ये,
दुःखमवाप्तः शरणमितोऽतः ॥१५॥ घोर निगोद महा सागर में काल प्रनन्त बिताये हैं, भीम भयंकर नरकगति में दुःख अनन्त उठाये हैं। क्रूर कुतियंचों में कुनरों में असुरादिक देवों में, अगणित कष्ट सहे हैं अब तुम शरण लिया ब्याकुल हो मैं ॥१५॥