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में तत्पर हए। तदनन्तर तीनों योगों को निरोधकर समूच्छिन्न क्रिया नाम के चौथे शुक्लध्यान का प्राश्रय उन्होंने लिया और चारों अघातिया को को नाशकर नारीर रहि केवल गुण पहोलर एक हजार मुनियों के साथ सबके द्वारा बांछनीय ऐसा मोक्ष पद प्राप्त किया।
इस प्रकार मोक्ष पद को प्राप्त कर पुरुषार्थ के अन्तिम अनन्त सुख का उपभोग वे उसी क्षण से करने लगे। भगवान के इस अन्तिम दिव्य अवसर के समय भी स्वर्गलोक के इन्द्र और देवतागण आये थे और उन्होंने मोह को नाश करने वाले भगवान के शरीर की पूजा वन्दना की थी। इस समय भी अलौकिक घटनायें घटित हुई थी और अंधेरी रात्री में एक अपूर्व प्रकाश चहऔर फैल गया था। अन्तत: उन देवों ने उस पवित्र शरीर को अग्निकुमार देवों के इन्द्र के मुकुट से प्रगट हुई अग्नि की शिखा में स्थापन किया था। इसी अवसर पर आस पास के प्रसिद्ध राजा लोग भी पावापुर में पहुंचे थे और वहां पर दीपोत्सव मनाया था। कल्पसूत्र में इनका उल्लेख इस प्रकार किया गया है:
'उस पवित्र दिवस जब पूज्यनीय श्रमण महावीर सर्व सांसारिक दुःखों से मुक्त हो गये तो काशी और कौशल के १८ राजारों ने, ह मल्ल राजाओं ने और लिच्छवि राजाओं ने दीपोत्सव मनाया था। यह प्रोषध का दिन था और उन्होंने कहा'ज्ञानमय प्रकाश तो लुप्त हो चुका है, आयो भौतिक प्रकाश से जगत को दैदीप्यमान बनायें।'
मानों उस समय आजकल के भौतिकवाद के प्रकाश की ही भविष्यवाणी उन राजानों ने की थी। इस प्रकार उस दिव्य अवसर के अनुरूप अाज तक यह दीपोत्सव का त्यौहार चला आ रहा है।
भगवान महावीर के परमश्रेष्ठ लाभ की पुण्य स्मृति और पवित्रता इस त्योहार में गभित है। इस तरह महावीर और म बुद्ध के अन्तिम जोवन का वर्णन है । भगवान महावीर के दर्शन साक्षात् परमात्मा रूप में होते हैं। वस्तुत: उनका यह जीवन अनुपम था । उनके जीवन से म. बुद्ध के जीवन की तुलना करना एक निष्फल क्रिया है, परन्तु जब संसार दोनों व्यक्तियों को समानता देता है तो तुलनात्मक अध्ययन करना आवश्यक ही था।