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तहां प्राइ प्रभुदीनौं ध्यान, तृतिय शुकल मंड्यो तिहि थान । दिव्यध्वनि भाषा नहि होइ, समोशरग सब विहरी सोह १२११।। प्रतिमा जोग दियौ भगवान, प्रकृति बहत्तर कीनो हान 1 प्रथम देवगति पंच शरीर, अरु संघात पंच वर वीर ॥२१२।। बंधन पंच जु अग उपंग, षट संस्थान संहनन सग । पंच वरण रस पंच द्विगन्ध, अरु असपरस अष्ट हि निरंध ।।२१३॥ देव गत्यानुपूरवी जात, गुरु लघु परघात नु अपघात । शस्त्र प्रशस्त विहायोगती, अरु उश्वास अपरापती ॥२१४॥ पून प्रतेक थिर अथिर विनाश, शुभ ग्रह अशुभ जु दुर्भग त्रास । अनादेय सुस्वर दुस्वरा, अयश असाती कर्म निहरा ॥२१५।। नीच गोत्र की कीनी हान, गये उलंपि तेरम गुणथान । शुकल ध्यान पुन चीपद धार, चढ़ि अयोगि गुणथान सम्हार ।२१६। जाके अन्तसमय द्वय महि, ते रहि प्रकृति खिपाई ताहि । प्रथमहि सातावेदनि हनि, मनुष पायु मानुषगति भनी ।।२१७।। मानुषगत्यानुपूर्वी जान, पंचम इन्द्रिय कोनो हान । सुभाग तहां प्रादेश विनाश, जस अरु उच्च गोत्र पुन भास ॥२१॥ परजापति त्रस बादर कर्म, खिप तीर्थकर गोत्र सुपर्म । यह विधि अष्ट कर्मको जार, ऊर्ध्वगमन कर शिवपुर धार ॥२१९।। कार्तिक कृष्णा अमावस रात, स्वाति नक्षत्र समय परभात । लोकशिखर राजत जिन वार, किंचित ऊन जु चरम शरीर ॥२२०॥ कर्म काप हनि मुक्ति हि गये, सिद्ध अष्टगुण मोडत भये । मोह कर्म परि कोनो नाश, क्षायिक समकित गुण परकाश ॥२२१।।
कर दसरा कोई मिथ्यातो देव नहीं हो सकता। उस जैनीके इन वचनोंको सुनकर उस विष कुमारको देव मूढ़ता दूर हो सो"। इसके भी वे आगे बढ़े जा रहे थे सोर दोनों गङ्गा नदोके किनारे जा पहुंचे । गंगाको देखकर उस मिथ्याती विप्र कमारने कहा-इसका जल परम पवित्र है और दूसरोंको पवित्र करनेकी इसमें असीम शक्ति है। ऐसा कहकर उसने गंगाजल में श्रद्धापूर्वक स्नान किया ओर निकलने के बाद पुनः नमस्कार किया। उसको ऐसा करते देखकर अहहासने अपना उच्छिष्ट (जठा) अन्न एवं गंगाजल उस ब्राह्मग-कुमारको खाने-पीने के लिए दिया। उसने कहा-क्या मैं तुम्हारा उच्छिष्ट खाऊं? उसके उत्तरको सुनकर अहद्दास ने तक को, कि-वित्र, तुम्हें मेरा उच्छिष्ट अन्न जल तो अग्राह्य जान पडता है फिर जिसमें गधे इत्यादि नाना प्रकारके निन्द्य जोव पानो पिया करते हैं उस गंगाजलको तुम परम पवित्र कैसे कह रहे हो? बह किस प्रकार स्वयं पवित्र है और दूसरोंको भो शुद्धकर सकता है ? जल को तीर्थ समझना भ्रम हैस्नान करने से मनुष्योंकी शूद्धि नहीं हो सकती, हा जोवोंको हिंसाका पाप ही होता है। यह शरीर स्वभावतः सदैव
_ *वीर निर्माण और दीपावली That night, in which Lord Mahavira attained Nirvan, was lighted up by desconding and ascending Gods and 18 confederate kingi instiuted an illumination to celebrate Moksha of the Lord. Since then the people make iluminatioa and this in fact is the 'ORIGIN OF DIPAWALI.
-Prof Prithvi Raj: VoA, VoI.1. Part. VI. p.9. सन् ईस्वी से ५२७ साल, विक्रमी सं० से ४७० वर्ष, राजा शक से ३०५ साल ५ महीने पहिले कार्तिक वदी चौदश, सोमवार और अमावस्या, मङ्गलवार के बीच में जानवाल जब चौथे .ाल के समाप्त होने में वीन वर्ष साढ़े आठ महीने बाकी रह गये थे, केवल ज्ञान के प्राप्त होने के २६ साल ५ महीने २० दिन बाद, ७१ वर्ष ३ महीने २५ दिन की आयु में भगवान महावीर ने महलों की पावापुर नगरी में निर्वाण प्राप्त किया । स्वर्ग के देवताओं ने उस अन्धेरी रादि में रत्न बरसा कर रोशनी की। जनना ने धोया जला कर उत्साह मनाय।। राजाओं ने वीर निवारण की वादगार में कार्तिक वदी चौदश और अमावस दोनों राधियों को हरसान दीसवली पर्व की स्थापना की उस समय भ. महावीर की मान्यता ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद चारों वर्ण बान्ले करते थे, इसलिये दीपावली के त्योहारों को आज तक चारों वरणों वाले बड़े उत्साह के साथ मनाते हैं।
आर्यसमाजी महषि स्वामी दयानन्द जी, सिक्या छठे गुरु थी हरिगोविन्द जी, हिन्दु श्री रामचन्द्र जी, जैनी वीरनिवरिंग और कुछ महाराजा अशोक को दिग्विजय को पीपावली का कारण बनाते हैं। कुछ का विश्वास है कि राजा बलि की दानवीरवा में प्रसन्न होकर विष्णु जी ने धनतेरस से तीन दिन का उत्सव मनाने के लिये दीपावली का त्योहार आरम्भ किया था और कुछ का कथन है कि यमराज ने वर मांगा था कि कातिक वदी तेरस से दोयज तक ५ दिन जो उत्सब मनायेंगे उनकी अकाल मृत्यु नहीं होगी इसलिये दीपावली मनाई जाती है, परम् दीपावली
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