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उत्तम देवों ने निर्वाण-कल्याणक किया, तथा 'यहां निर्वाणक्षेत्र है' इस प्रकार सम्मेद शिखर को निर्वाण-क्षेत्र ठहराकर स्वर्ग की पोर प्रयाण किया।
अत्यन्त बुद्धिमान और निपुण जिन सुपार्श्वनाथ भगवान ने दुःख से निवारण करने के योग्य पाप रूपी बड़े भारी शत्रुमों के समूह को निष्क्रिय कर दिया, मौन रखकर उसके साथ युद्ध किया, कुछ समय तक समवसरण में प्रतिष्ठा प्राप्त की, अत्यन्त दुष्ट दुर्वासना को दूर किया और अन्त में निर्वाण की अवधि को प्राप्त किया, वे श्रेष्ठतम भगवान सुपार्श्वनाथ हम सब परिचितों को चिरकाल के लिए शीघ्र ही अपने समीपस्थ करें । जो पहले भव में क्षेभपुर नगर के स्वामी तथा सबके द्वारा स्तुति करने योग्य नन्दिषेण राजा हुए. फिर तप कर नव वेयकों में से मध्य के ग्रेवेयक में अहमिन्द्र हुए, तदन्तर बनारस नगरी में शत्रुओं को जीतने वाले और इक्ष्वाकु वंश के तिलक महाराज सुपाद हए वे सप्तम तीर्थकर तुम सबकी रक्षा करें।
भगवान् चन्द्रप्रभु जो स्वयं शुद्ध हैं और जिन्होंने अपनी प्रभा के द्वारा समस्त सभा को एक वर्ण की बनाकर शुद्ध कर दी, बे चन्द्रप्रभु स्वामी हम सबकी शद्धि के लिए हों। शरीर की प्रभा के समान जिनको वाणी भी हर्षित करने वाली तथा पदार्थों को प्रकाशित करने वाली थी पीर जो आकाश में देवरूपी साराओं से घिरे रहते थे उन चन्द्रप्रभु स्वामी को नमस्कार करता हूं। जिनका नाम लेना भी जीवों के समस्त पापों को नष्ट कर देता है फिर सुना हुया उनका पवित्र चरित्र क्यों नहीं नष्ट कर देगा? इसलिये मैं पहले के सात भवों से लेकर उनका चरित्र कहंगा । हे भव्य श्रेणिक! तुझे उसे श्रद्धा रखकर सुनना चाहिये । दान, पूजा तथा अन्य कारण यदि सम्यग्ज्ञान से सुशोभित होते हैं तो वे मुक्ति के कारण होते हैं और चकि वह सम्यग्ज्ञान इस पुराण के सुनने से होता है अतः हित की इच्छा करने वाले पुरुषों के द्वारा अवश्य ही सुनने के योग्य है। अर्हन्त भगवान ने अनुयोगों के द्वारा जो चार प्रकार के सुक्त बतलाये हैं उनमें पुराण प्रथम सुक्त है ! भगवान् ने इन पुराणों से ही सुनने का क्रम वतलाया है।
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषाय का उपदेश देने वाले भगवान ऋषभदेव आदि के पुराणों को जो जीभ कहती है, जो कान सुनते हैं और जो मन सोचता है वही जीभ है, वही कान सुनते हैं और वही मन है, अन्य नहीं।
इस मध्यम लोक में एक पुष्कर द्वीप है। उसके बीच में मानुषोत्तर पर्वत है। यह पर्वत चारों ओर से वलय के प्राकार का गोल है तथा मनुष्यों के आवागमन की सीमा है । उसके भीतरी भाग में दो सुमेरु पर्वत हैं एक पूर्व मेरु और दूसरा पश्चिम गेरु । पूर्व मेर के पश्चिम की ओर विदेह क्षेत्र में सीतोदा नदी के उत्तर तट पर एक सुगन्धि नाम का बड़ा भारी देश है । जो कि योग्य किला, वन, खाई खाने और बिना वोये होने बाली धान्य मादि पृथ्वी के गुणों से सुशोभित है । उस देश के सभी मनुष्य क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण में विभक्त थे तथा नेत्र विशेष के समान स्नेह से भरे हुए, सूक्ष्म पदार्थों को देखने वाले एवं दर्शनीय थे । उस देश के किसान तपस्वियों का अतिक्रमण करते थे अर्थात् उनसे आगे बढ़े हुए थे। जिस प्रकार तपस्वी ऋजु अर्थात् सरल परिणामी होते है उसी प्रकार वहां के किसान भी सरल परिणामी भोले भाले थे, जिस प्रकार तपस्वी धार्मिक होते हैं उसी प्रकार किसान भी धामिक थे- धर्मात्मा थे अथवा खेती को रक्षा के लिये धर्म धनुष से सहित थे, जिस प्रकार तपस्दी बीत दोषदोषों रो रहित होते हैं उसी प्रकार किसान भी वीत दोष-निर्दोष थे अथवा खेती की रक्षा के लिए दोषाएं-रात्रियां व्यतीत करते थे, जिस प्रकार तपस्वी क्ष धा तृषा प्रादि के कष्ट सहन करते हैं उसी प्रकार किसान भी क्षुधा तृषा आदि के कष्ट सहन करते थे। इस प्रकार सादृश होने पर भी किसान तपस्वियों से आगे बढ़े हुए थे उस का कारण था कि तपस्वी मनुष्यों के प्रारम्भ सफल भी होते थे और निष्फल भी चले जाते थे परन्तु किसानों के प्रारम्भ निश्चित रूप से सफल ही रहते थे।
वहां के सरोवर अत्यन्त निर्मल थे, सुख से उपभोग करने के योग्य थे, कमलों से सहित थे, सन्ताप का छेद करने वाले थे, अगाध-गहरे थे और मन तथा नेत्रों को हरण करने वाले थे। वहां के खेत राजा के भण्डार के समान जान पड़ते थे, क्योंकि जिस प्रकार राजाओं के भण्डार सब प्रकार के अनाज से परिपूर्ण रहते हैं उसी प्रकार वहां के खेत भी सब प्रकार के
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