________________
किया जिससे नरकायु बांध कर तमस्तम नामक सातवें नरक में गया। और नारायण स्वयंभु भी वर के संसार-से उसे खोजने के लिए ही मानों अपने पापोदय के कारण पीछे से उसी नरक में प्रविष्ट हुआ । स्वयंभू के वियोग से उत्पन्न हुए शोक के द्वारा जिसका हृदय संतप्त हो रहा था ऐसा बलभद्र धर्म भी संसार से विरक्त होकर भगवान विमलनाथ के समीप पहुंचा। और सामायिक संयम धारण कर संयमियों में अग्रसर हो गया। उसने गिराकुल होकर इतना कठिन तप किया मानों शरीर के साथ विद्वेष ही ठान रक्खा हो। उस समय बलभद्र ठीक सूर्य के समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार सूर्य सत्त प्रति गोलाकार होता है इसी प्रकार बलभद्र भी मुद्दत्त अर्थात् सदाचार से युक्त थे जिस प्रकार सूर्य तेज की मूर्ति स्वरूप होता है उगी प्रकार बलभद्र भी तेज को मुर्ति स्वरूप थे, जिस प्रकार सूर्य उदित होते हो अन्धकार को नष्ट कर देता है उसी प्रकार बलभद्र ने मुनि होते ही अन्तरंग के अन्धकार को नष्टकर दिया था, जिस प्रकार सूर्य निर्मल होता है उसी प्रकार बलभद्र भी कर्ममल नष्ट हो जाने निर्मल थे और जिस प्रकार सूर्य बिना किसी रुकावट के ऊपर पाकाश में गमन करता है उसी प्रकार बलभद्र भी बिना किसी रुकावट के ऊपर तीन लोक के अग्रभाग पर जा घिराजमान हुए। देखी, मोह वश किये हुए जुआ से मुर्ख स्वयंभू और राजा मधु पाप का संचय कर दुखदायी नरक में पहुंचे सो ठीक ही है क्योंकि धर्म, अर्थ, काम इन तीन का यदि कुमार्ग यत्ति से सेवन किया जाय तो यह तीनों ही दुख परम्परा के कारण हो जाते हैं।
कोई उत्तम तपश्चरण करे और क्रोधादि के वशीभूत हो निदान बंध कर ले तो उसका वह निदान-बन्ध अतिशय पाप मे उत्पान दुःख का कारण हो जाता है। देखो, 'सुकेतु यद्यपि तीर्थमार्ग का पथिक था तो भी निदानबन्ध दूर से ही छोड़ने योग्य है। धर्म, पहले अपनी बान्ति से सूर्य को जीतने वाला मित्रनन्दी नाम का राजा इना, फिर महाव्रत और समितियों से समन्पन होकर छानुत्तर विमान का स्वामी हुआ, वहां से चयकर पृथ्वी पर द्वारावती नगरी में सुधर्म बलभद्र हुआ और तदनन्तर आत्मस्वरूप को सिद्ध कर मोक्ष पद को प्राप्त हुआ। स्वयंभू पहले कुणाल देश का मूर्ख राजा सुकेतु हुआ, फिर तपश्चरण कर सुख के स्थान-स्वरूप लान्तव स्वर्ग में देव हुया, फिर राजा मध को नष्ट करने के लिए यमराज के समान चक्रवर्ती-नारायण हमा पीर तदनन्तर पापोदय से नीचे सातवीं पृथ्वी में गया।
अथानन्तर-इन्हीं विमलवाहननाथ तीर्थकर? के तीर्थ में अत्यन्त उन्नत, स्थिर और देवों के द्वारा सेवनीय मेरु और मन्दरनाथ के दो गणधर हुए थे इसलिए अब उनका चरित कहते हैं । जम्बुद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में सीतोदा नदी के उत्तर तट पर एक गन्धमालिनी नाम का देश है उसके वीतशोक नगर में बंजयन्त राजा राज्य करता था। उसकी सर्वश्री नाम की रानी थी और उन दोनों के संजयन्त तथा जयन्त नाम के दो पुत्र थे, ये दोनों ही पुत्र राजपूतों के गुणों से सहित थे। किसी दूसरे दिन अशोक वन में स्वयंभू नामक तीर्थकर पधारे। उनके समीप जाकर दोनों भाइयों ने धर्म का स्वरूप सुना नीर दोनों ही भोगों से विरक्त हो गये उन्होंने संजयन्त के पुत्र वैजयन्त के लिए जो कि अतिशय बुद्धिमान था राज्य देकर पिता के साथ संयम धारण कर लिया। संयम के सातवें स्थान अर्थात बारहवें गुणस्थान में समस्त कषायों का क्षय कर जिन्होंने समरसपना–पुर्ण वीनरागता प्राप्त कर ली है ऐसे बैजयन्त मुनिराज जिनराज अवस्था को प्राप्त हुए। पिता के केवलज्ञान का उत्सव मनाने के लिए सब देव आये तथा धरणेन्द्र भी पाया। धरणेंद्र के सौन्दर्य और बहुत भारी ऐश्वर्य को देख कर जयन्त मुनि ने धरणन्द्र होने का निदान किया। उस निदान के प्रवाह से वह दुर्बुद्धि मर कर धरणेन्द्रमा सो ठीक है क्योंकि बहुत मूल्य से अल्प मूल्य की वस्तु खरीदना दुर्लभ नहीं है ।
किसी एक दिन संजयन्त मुनि, मनोहर नगर के समीपवर्ती भीम नामक वन में प्रतिमा योग धारण कर विराजमान थे। वहीं से विद्यदष्ट्र नाम का विद्याधर निकला। वह पूर्व भव के वैर स्मरण हए तीन बेग से युक्त क्रोध से आगे बढ़ने के लिए असमर्थ हो गया । वह दुष्ट उन मुनिराज को उठा लाया तथा भरत क्षेत्र के इला नामक पर्वत की दक्षिण दिशा की ओर जहां