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कुसुमवती, हरवती, सुवर्णवती, गतवती और चण्डवेगा इन नदियों का समागम होता है वहां उन नदियों के अगाध जल में छोड़ पाया।
इतना ही नहीं उसने भोले-भाले विद्याधरों को निम्नांकित शब्द कहकर उत्तेजित भी किया। वह कहने लगा कि । यह कोई वड़े शरीर का धारक, मनुष्यों को खाने वाला पापो राक्षस है, यह हम सबको अलग-अलग देखवार खाने के लिए चुपचाप खड़ा है, इस निर्दय, सर्वभक्षी तथा सर्वदोषी दैत्य को हम लोग मिलकर बाण तथा भाले आदि शस्त्रों के समूह से मार, देखो, यह मुखा है, भूख से इसका पेट झुका जा रहा है, यदि उपेक्षा की गई तो यह देखते-देखते आज रात्रि को ही स्त्रियोंबच्चों तथा पशुमों को खा जावेगा। इसलिए आप लोग मेरे बचनों पर विश्वास करो, मैं वृथा ही झूठ क्यों बाल मा ? क्या इसके साथ मेरा द्वेष है? इस प्रकार उसके द्वारा प्रेरित हुए सब विद्याधर मत्यु से डर गये और जिस प्रकार किसो विश्वासपात्र मनुष्यों को ठग लोग मारने लगते हैं उस प्रकार शस्त्रों का समूह लेकर साधु शिरोमणि एवं समाधि में स्थित उन संजयन्त मुनिराज को वे विद्याधर सब ओर से मारने लगे। संजयन्त मुनिराज भी इस समस्त उपसर्ग को सह गये, उनका शरीर वज्र के समान सुदृढ था, वे पर्वत के समान निश्चल खड़े रहे और शुक्लध्यान के प्रभाव से निर्मल ज्ञान के धारी मोक्ष को प्राप्त हो गये।
उसी समय चारों निकाय के इन्द्र उनकी भक्ति से प्रेरित होकर निर्वाण-कल्याणक की पूजा करने के लिए प्राये। सब देवों के साथ पूर्वोक्त धरणन्द्र भी आया था, अपने बड़े भाई का शरीर देखने से उसे अवधिज्ञान प्रकट हो गया जिससे वह बड़ा कुपित हुआ। उसने उन समस्त विश्वावरी को नागराश से बांध लिया । उन विद्याधरों में काई-कोई बुद्धिमान भी थे अतः उन्होंने प्रार्थना को कि हे देव ! इस कप में हम लोगों का दार नहीं है. पापः विशुदंष्ट्र इन्हें विदेह क्षेत्र से उठा लाया पीर विद्याघरों को इसने बतलाया कि इनसे तुम सबको बहुत भय है । ऐसा कहकर इसो दुष्ट ने हम सब लोगों से व्यर्थ हो यह महान् उासगं करवाया है। विद्याबरों को प्रार्थना सुनकर धरणेन्द्र ने उन पर क्रोध छोड़ दिया और परिवार सहिन विद्युदंष्ट्र को समुद्र म गिराने का उद्यम किया । उसी समय वहां एक प्रादित्याभ नाम का देव पाया था जो कि विद्युइंग्ट्र और धरणद्र दोनों के हो गुण-लाभ का उस प्रकार हेतु हुअा था जिस प्रकार को किसो धातु और प्रत्यय के बीच में आया हुमा अनुबन्ध गुण-न्याकरण में प्रसिद्ध संज्ञा विशेष का हेतु होता हो। वह कहने लगा कि हे नागराज! यद्यपि इस विद्युदंष्ट्र ने अपराव किया है तथापि मेरे अनुरोध से इस पर क्षमा कीजिये । आप जैसे महापुरुषों का इस क्षद्र पशु पर क्रोध कैसा ? वहुत पहल, आदिनाथ तोथंकर के समय आपके वंश में उत्पन्न हए धरणेद्र के द्वारा विद्याधरों को विद्याए देकर इसके वंश की रचना की गई थी। लोक में यह बात बालक तक जानते हैं ; कि अन्य वृक्ष की बात जाने दो, विपक्ष को भी स्वयं यढ़ाकर स्वयं काटना उचित महीं है, फिर हे नागराज ! आप क्या यह बात नहीं जानते ?
जब आदित्याभ यह कह चुका तब नागराज-धरणद्र ने उत्तर दिया कि इस दुष्ट ने मेरे तपस्वी बड़े भाई को कारण ही मारा है अतः यह मेरे द्वारा अवश्य हो मारा जावेगा । इस विषय में पाप मेरी इच्छा को रोक नहीं सकते।' यह सुनकर बद्धिमान देव ने कहा कि-'पाप वृथा ही वर धारण कर रहे हैं। इस संसार में क्या यही तुम्हारा भाई है ? और संसार में भ्रमण करता हुबा विद्युदंष्ट्र क्या आज तक तुम्हारा भाई नहीं हुआ। इस संसार में कौन बन्धु है ? और कौन बन्धु नहीं है ? बन्धुता और अनन्धुता दोनों ही परिवर्तनशील हैं--प्राज जो बन्धु है वह कल प्रबन्ध हो सकता है और जो अबन्धु है वह कल बन्धु हो सकता है अत: इस विषय में विद्वानों को आग्रह क्यों होना चाहिए? पूर्व जन्म में अपराध करने पर तुम्हारे संजयन्त ने विद्युद्देष्ट के जीव को दण्ड दिया था, प्राज इसे पूर्व जन्म की वह बात याद आ गई अतः इसने मुनि का अपकार किया है। इस पापी ने तुम्हारे बड़े भाई को पिछले चार जन्मों में भी महा वर के संस्कार से परलोक भेजा है - मारा है। इस जन्म में तो मैं इस विद्याधर को इन मुनिराज का उपकार करने वाला मानता हूं क्योंकि, इसके द्वारा किये हए उपसर्ग को महकर ही ये मुक्ति को प्राप्त हुए हैं। हे भद्र ! इस कल्याण करने बाले मोक्ष के कारण को जाने दीजिये । पाप यह कहिये कि पूर्व जन्म में किये हुए अपकार का क्या प्रतिकार हो सकता है ?
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