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यह सुनकर धरणेन्द्र ने उत्सुक होकर ग्रादित्याभ से कहा कि वह कथा किस प्रकार है ? आप मुझ से कहिये । वह देव कहने लगा कि हे बुद्धिमान । इस विद्युदंष्ट्र पर वर छोड़ कर शुद्ध हृदय से सुनो, मैं वह सब कथा विस्तार से साफ-साफ कहता हूं।
इसी जम्बद्वीप के भरत क्षेत्र में सिंहपुर नगर का स्वामी राजा सिंहसेन था। उसकी रामदत्ता नाम की पतिन्नता रानी थी। उस राजा का श्रीभूति नाम का मंत्री था, वह श्रुति स्मृति तथा पुराण प्रादि शास्त्रों का जानने वाला था, उत्तम ब्राह्मण था और अपने प्रापको सत्यघोष कहता था। उसी देश के पद्मखण्डपुर नगर में एक सुदत्त नाम का सेठ रहता था। उसकी सुमित्रा स्त्री से भद्रमित्र नाम का पुत्र हुआ उसने पुण्योदय से रत्नद्वोप में जाकर स्वयं बहुत से बड़े-बड़े रत्न कमाये । उन्हें लेकर वह सिंहपुर नगर पाया और वहीं स्थायी रूप से रहने की इच्छा करने लगा। उसने धीभूति मंत्री से मिलकर सब बात कही और उसकी सम्मति से अपने रत्न उसके हाथ में रखकर अपने भाई-बन्धुओं को लेने के लिए वह पद्यखण्ड (पद्म) नगर में गया। वहां से वापिस आया तब उसने सत्यवाष से अपने रत्न मांगे परन्तु रत्नों के मोह में पड़ कर सत्यघोष बदल गया और कहने लगा कि मैं कुछ नहीं जानता।
तब भद्रमित्र ने सब नगर में रोना-चिल्लाना शुरू किया और सत्यघोष ने भी अपनी प्रामाणिकता बनाये रखने के लिए लोगों को यह बतलाया कि पापी चोरों ने इसका सब धन लूट लिया है। इसी शोक से इसका चित्त व्याकुल हो गया है और उसी दशा में वह यह सब बक रहा है । सदाचार से दूर रहने वाले उस सत्यघोष ने अपनी शुद्धता प्रकट करने के लिए राजा के समक्ष धर्माधिकारियों-न्यायघोशों के द्वारा बतलाई शपथ खाई । भद्रमित्र यद्यपि अनाथ रह गया था तो भो उसने अपना रोना नहीं छोड़ा, वह बार-बार यही कहता था कि इस पापो विजाति ब्राह्मणों ने मुझे ठग लिया। हे सत्यघोष ! मैंने तुझे चारों तरफ से शुद्ध जाति आदि गुणों से युक्त मंत्रियों के उत्तम गुणों से विभूषित तथा सचमुच हो सत्यघोष समझा था इसलिए हो मैंने अपना रत्नों का पिटारा तेरे हाथ में सौंप दिया था अब इस तरह तू क्यों बदल रहा है, इस बदलने का कारण दया और यह सब करना क्या ठोक है ? महाराज सिंह के प्रसाद से तेरे क्या नहीं है? छत्र और सिंहासन को छोडकर परमारा राज्य तेरा ही तो है। फिर धर्म, यश और बड़प्पन को व्यर्थ हो क्यों नष्ट कर रहा है ? क्या तू स्मृतियों में कहे हुये ध्यासापहार के दोष को नहीं जानता? तूने जो निरन्तर अर्थशास्त्र का अध्ययन किया है क्या उसका यही फल है कि तू सदा हसरों को उगता है और दूसरों के द्वारा स्वय नहीं उगाया जाता । अथवा तू पर शब्द का अर्थ विपरीत समझता है-पर का
दसरा न लेकर शत्रु लता है सो हे सत्यघोष ! क्या सचमुच हा मैं तुम्हारा शत्रुहूं। सद्भावना से पास में आये हुए मनुष्यों को ठगने में क्या चतुराई है ? गाद में आकर साये हुए को मारने वाले का पुरुषार्थ क्या पुरुषार्थ है ? हे श्रीभूति ! तू महामोह रूपी पिशाच से ग्रस्त हो रहा है, तू अपने भावी जीवन को नष्ट मतकर, मेरा रत्नों का पिटारा मुझे दे दे। मेरे रत्न ऐसे हैं, इतने बड़े हैं और उनकी यह जाति है, यह सब तू जानता है फिर क्यों इस तरह उन्हें छिपाता है।
इस प्रकार बह भद्रमित्र प्रति दिन प्रातःकाल के समय किसी वृक्ष पर चढ़कर बार-बार रोता था सो ठीक ही है क्योंकि धीर-वीर मनुष्य कठिन कार्य में भी उद्यम नहीं छोड़ते । बार-बार उसका एक-सा रोना सुनकर एक दिन रानो के मन में विचार पाया कि चूकि यह सदा एक ही सदृश शब्द कहता है अतः यह उन्मत्त नहीं है, ऐसा समझ पड़ता है। रानी ने यह विचार राजा से प्रकट किये और मंत्री के साथ जुमा खेलकर उसका यज्ञोपवीत तथा उसके नाम की अंगूठी जीत ली । तदनन्तर जसने निषणमती नाम की धाय के हाथ में दोनों चीजें देकर उसे एकान्त में समझाया कि तू धीभूति मन्त्री के घर जा
सजनकी स्त्री से कह कि मुझ मन्त्रा ने भेजा है, तू मेरे लिए भद्रमित्र का पिटारा दे दे। पहिचान के लिए उन्होंने यह दोनों चीजें भेजी हैं इस प्रकार झूठ-मूठ हो कह करतू वह रत्नों का पिटारा ले आ, इस तरह सिखलाकर रानी रामदत्ता ने । धाय भेजकर मन्त्री के घर से यह रत्नों का पिटारा बुला लिया। राजा ने उस पिटारे में और दूसरे रत्न डालकर भद्रमित्र को स्वयं एकान्त में बुलाया और कहा कि क्या यह पिटारा तुम्हारा है? राजा के ऐसा कहने पर भद्रमित्र ने कहा।
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