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कुटम्बियों ने उसे बहुत बार रोका पर उसके बदले उनसे प्रेरित हुए के समान वह बार-बार जुआ खेलता रहा और कर्मोदय के विपरीत होने से वह अपना देश-धन-बल और रानी सब कुछ हार गया श्रोध से उत्पन्न होने वाले मद्य, मांस और शिकार इन तीनो व्यसनों में तथा काम से उत्पन्न होने वाले जुमा, चोरी, वेश्या और पर-स्त्री सेवन इन चार व्यसनों में जुया मेलने के समान कोई नीच व्यसन नहीं हैं ऐसा सब शास्त्रकार कहते हैं।
जो सत्य महागुणों में कहा गया है जुना खेलने में प्रासक्त मनुष्य उसे सबसे पहले हारता है। पीछे लज्जा, अभिमान, कुल, सुख, सज्जनता, बन्धुवर्ग, धर्म. द्रव्य, क्षेत्र, घर, यश, माता-पिता, बाल-बच्चे, स्त्रियां और स्वयं अपने आपको हारता है-नष्ट करता है । जुना खेलने वाला मनुष्य प्रत्यासक्ति के कारण न स्नान करता है, न भोजन करता है, न सोता है और इन यावश्यक कार्यों का रोध हो जाने से रोगी हो जाता है। जुमा खेलने से धन प्राप्त होता हो सो बात नहीं, वह व्यर्थ ही कलेश उठाता है, अनेक दोष उत्पन्न करने वाले पाप का संचय करता है, निन्द्य कार्य कर बैठता है, सबका शत्र बन जाता है, दूसरे लोगों से याचना करने लगता है।बन्धुजन उसे छोड़ देते हैं--घर से निकाल देते हैं, एवं राजा को ओर से उसे अनेक याष्ट प्राप्त होते हैं । इस प्रकार जुना के दोषों का नामोल्लेख करने के लिए भी कौन समर्थ है ?
राजा सूकेतु ही इसका सबसे अच्छा दृष्टान्त है क्योंकि वह इस जुप्रा के द्वारा अपना राज्य भी हार बैठा था। इसलिये जो मनुष्य अपने दोनों लोकों का भला चाहता है वह जुया को दूर से ही छोड़ देवे। इस प्रकार सुकेतु जब अपना सर्वस्व द्वार त्रुका तब शोक से व्याकुल होकर सुदर्शनाचार्य के चरण-मूल में गया । वहाँ उसने जिनागम का उपदेश सुना और संसार से विरक्त होकर दीक्षा धारण कर ली । यद्यपि उसने दीक्षा धारण कर ली थी तथापि उसका प्राशय निर्मल नहीं हा था। उसने शोक से अन्न छोड़ दिया और अत्यन्त कठिन तपश्चरण किया। दीर्घकाल तक तपश्चरण कर उसने इस प्रकार
अन्तिम समय में निदान किया कि इस तप के द्वारा मेरे कला, गुण, चतुरता मोर बल प्रकट हो। ऐसा निदान कर वह सन्यास मरण से मरा तथा लान्तव स्वर्ग में देव हुमा। वहां चौदह सागर तक स्वर्गीय सुख का उपभोग करता रहा। वहाँ से चय इसी भरत क्षेत्र की द्वाराबती नगरी के भद्र राजा की पृथ्वी रानी के स्वयंभू नाम का पुत्र हुया । यह पत्र राजा को सब पूत्रों में अधिक प्यारा था। धर्म बलभद्र था और स्वयंभू नारायण था। दोनों में ही परस्पर अधिक प्रीति थी और दोनों ही चिरकाल तक राज्यलक्ष्मी का उपभोग करते रहे। सुकेतु की पर्याय में जिस बलवान राजा ने जुआ में सुकेत का राज्य छीन लिया था बह मर कर रत्नपुर नगर में राजा मधु हुमा था।
पूर्व जन्म के वैर का संस्कार होने से राजा स्वयंभू मधु का नाम सुनने मात्र से कुपित हो जाता था। किसी समय किसी राजा ने राजा मधु के लिए भेंट भेजी थी, राजा स्वयंभू ने दोनों के दूतों को मारकर तिरस्कार के साथ वह भेंट स्वयं छीन ली। प्राचार्य कहते हैं कि प्रेम और द्वेष से उत्पन्न संस्कार स्थिर हो जाता है इसलिए पात्मज्ञानी मनुष्य को कहीं किसी के साथ द्वेष नहीं करना चाहिए । जब मधु ने नारद से दूत के मरने का समाचार सुना तो वह क्रोधित होकर युद्ध करने के लिए बलभद्र और नारायण के सन्मुख चला। इधर युद्ध करने में चतुर तथा कुपित बलभद्र और नारायण युद्ध के लिए पहले से ही तैयार बैठे थे अतः यमराज और अग्नि की समानता रखने वाले वे दोनों राजा मध को मारने के लिए सहसा उसके पास पहुंचे।
दोनों वीरों को सेनाओं में परस्पर का संहार करने वाला चिरकाल तक घमासान युद्ध हुआ । अन्त में राजा मधु ने कुपित होकर स्वयंभू को मारने के उद्देश्य से शीघ्र ही जलता हुया चक्र घुमा कर फेंका। वह चक्र शीघ्रता के साथ जाकर तथा प्रदक्षिणा देकर स्वयंभू की दाहिनी भुजा के अग्रभाग पर ठहर गया । उस समय वह ऐसा जान पड़ता था मानो आकाश से उतर कर सूर्य का बिम्ब ही नीचे आ गया हो। उसी समय राजा स्वयंभू ने कुपित होकर वह चक्र शत्रु के प्रति फेंका सो ठीक ही है क्योंकि पुण्योदय से क्या नहीं होता? उसी समय स्वयंभ नारायण, ग्राधे भरत क्षत्र का राज्य समान अपने बड़े भाई के साथ उसका निविघ्न उपभोग करने लगा। राजा मधु ने प्राण छोड़ कर बहुत भारी पाप का संचय
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